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गालिब का एक शेर है,
सैर कर दुनिया की गालिब,
जिंदगानी फिर कहा
जिंदगानी गर रही तो,
नौजवानी फिर कहा.
अब तो आप सब कुछ समझ ही गये होंगे. हम क्या लिखना चाहते हैं ? खैर आप समझ ही गये हैं फिर भी हम, आपको अपनी जगह पर बैठाये ही ’’बनारस वाया दिल्ली टू... ’’ का यायावरी करा देते हैं. क्या कहते हैं आप तैयार हैं हमारे साथ एक नया और बेहद नये अनुभवों के साथ सुनहारे सफर पर निकलने के लिये. आधा साल पटना के आबोहवा का रोमांंच सब पर रहमों-करम नहीं होता है. यहां से निकलते ही मुझे लगा कि कुछ समय घर हो लिया जाय, क्या पता फिर कब घर लौटना होगा? क्योंकि मन्जिल के तलाश में किस दर-दर भटकना पडेगा. ये ना ही हम जानते हैं और ना ही मेरी किस्मत मुझे बताने आने वाली है.
विचारों के इसी गमा-गर्मी में पांव मुगलसराय जंक्शन पर उतरकर गांव जाने वाली सवारी में जाकर समा गया. जब तक मैं झपकी ले ही रहा था कि कंडकटर चिल्लाते हुए जगाता है. ए... बाबू ! मनिकपुर का छौरा (हाईवे से गांव जाने वाली सड़क) आ गयल, उतरे के बा कि ना. हम आंंख मलते हुए बोले रूका यार ! अपने बस के उड़ावत ली आईला हअ का ? केतना पैसा भईल ? कंडकटर : 35 रुपया.
गांव के करीब पहुंंचते ही खेतों में सड़ते हुए पानी से घास और ढ़ईचा (धान की फसल लगाने से पहले बोई जाती है, जिसको पानी जोतकर हरित खाद के रूप में तैयार किया जाता है) की तीखी और भारी गंध नथुनों को बीथने लगी. शहरी डिओडेंट्र सुंंघने की आदत पड़ी नाक को थोडा अजीब लगा और हम इस गंध से असहज हो गये. तभी अचानक मुझे याद आया कि परसो बाबूजी से बात हुई है. और वो बात ही बात में धान की.....जिक्र कर रहें थे की धान की नर्सरी तैयार हो चुकी है. बारिश भी अच्छी हो रही है. दो-चार दिन में धान की रोपाई हो जायेगी. ये बातें मेरे जेहन में उभरते ही, पल भर जो गंध मेरे नथुनों को फटने को विवश कर रही थी. अब इसी गंध में मुझे बासमती, सोनम, मोती और मंसूरी की खुश्बू महकने लगी.
बारिश में धान के रोपाई के लिये से खेत तैयार करने (लेव लगाना) का जो मेहनतकश और मनोरंजक रोमांच होता है. उसे शब्दों में बयान करना हमारे लिये आसान नहीं है. ट्रैक्टर के शेल्फ में चाभी भरते ही, डिजल के जलने का धुंआ फक्क-फक्का के आस-पास बिखर जाता है. बचपन में इस धुंए को फेफडे में भरना कितना सुखद होता था ... पर अब सच्चाई तो यहीं की बर्दाश्त नहीं होता है.
घर पहुंचते ही मम्मी और चाची के हाल-चाल और पानी-नाश्ते से फुरसत होते ही सबसे पहले खेतों की याद आयी. बैथक में जूता और कपडे बदल कर (हाफ पैंट, टी शर्ट और गमछा (सफेद साफा के साथ ) चाचा को खोजने निकल पडा. यही वो भले मनुश हैं जो हमे ट्रैक्टर सीखाने और चलाने में सहयोग करते हैं. बाकि घर के सम्मनित लोग हम उम्र और घर के छोटे बच्चों के मुंह से ट्रैक्टर का नाम सुनते ही....सबका यहीं जवाब होता था...भागत हउआ की लगाई... दू-चार झापड़
By - बनारसी बैचलर
Comments
वाह बहुत खूब लिखा है। रोचक शुरुआत।
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