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33 बरस पहले इसी सप्ताह के दौरान दिल्ली की गलियां रक्तरंजित की जा रही थी। सिक्ख समुदाय के लोगों की खुलेआम बलि दी जा रही थी। एकतरफ़ा नरसंहार को उस समय के सत्ता के अलंबरदार दंगा कह रहे थे।
'दंगा' उस स्थिति को कहते है, जबकि दो समुदाय के आततायी और खूंखार मानसिकता के लोग अपनी मज़हबी कट्टरता को पोषित करने के बाबत एक-दूसरे का ख़ून बहाते है। जबकि 1984 की इस घटना में सिक्खों का अकेले नरसंहार हुआ था, इसमें दूसरे समुदाय के लोगों का बाल बराबर भी जन और धन नुकसान नहीं हुआ था।
गुजरात दंगों के लिए मोदी को पानी पी-पी के कोसने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी कांग्रेस से इस घटना के बनिस्बत कभी जवाबतलबी नहीं करते। उल्टे उनकी दिलचस्पी इसे दंगा साबित करने में रहती है। अगर 1984 में ही पत्रकारों ने कांग्रेसियों और राजीव गांधी से इस बाबत सवाल पूँछे होते तो राजीव गांधी न सिर्फ अपनी गलती स्वीकार किये होते बल्कि उन माँ, बहनों, बेटियों को भी उचित न्याय मिलता जिनके बेटे, भाई और पिता नरसंहार में हलाल हुए थे।
दिल्ली की सड़कों पे मानव को हलाल करने वाले कसाई खुलेआम नरसंहार कर रहे थे। गाड़ियों को रोक-रोक कर पूँछा जा रहा था कि इसमें सिक्ख बैठे है? लगभग 3000 सिक्खों की बलि इस नरसंहार ने ली थी। कांग्रेसी नेताओं की दिलचस्पी सिक्खों को बचाने से अधिक नरसंहार के लिए जिम्मेदार लोगों को थाने से छुड़ाने में थी।
33 बरस बाद भी नरसंहार से हलाहल हुए सिक्ख जन न्याय की बाट जोह रहे है। ऊंट के मुंह में जीरा बराबर मुआवजा उनके पहाड़ भर के ज़ख्म को नहीं भर सकता।
By - Sankarshan Shukla
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