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एक छोटा सा मोड़ लेते हैं, अब आते हैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय. पूरा का पूरा बनारस. घर वालों को थोड़ी चिंता रहती थी कि ये लड़का क्या करेगा. खोजी-विनोदी, घुमक्कड़, खेलाड़ी, और बतकही करने वाला है. इसे किस तरफ बढ़ाया जाय-इंजीनियरिंग या मेडिकल. भोजूबीर स्थित यूपी कॉलेज से इंटरमीडिएट पास करते ही मानों मेरे सपनों को पंख लग गए थे. बाबूजी गर्मी के अवकाश में पूछने ही वाले थे कि तबतक मैं दोस्तों के बीएचयू के बीए आनर्स का फार्म भर चुका था.
देर शाम रोज चाचा-चाची, दादी, दीदी और मां-बाबूजी मेरे ही बारे में चर्चा करते मिल जाते थे. इन लोगों ने तय भी कर लिया था कि, घर का पहला लड़का है. अच्छी सोहबत में पढ़-लिखकर काबिल आदमी बन जाय. छुट्टीयां खत्म होने के बाद मुझे दुर्गाकुंड के रिश्तेदार के यहां शिफ्ट करने वाले थे. तब तक मैं बीएचयू का इंटेÑंस भी दे डाला.
शाम को क्रिकेट खेलकर मशीन पर (खलिहान में लगा ट्यूवेल) पर हाथ-पैर धो रहा था. इतने में दादी बाल्टी लेकर आईं और बोली.
‘तोहन लोगन क केतना खेल-कूद चलेला. आऊर तोहार बाप हमसे कहेला...छुट््टी खतम हो गईल है. का करींह तोहार लॉड साहब !’
ला बाल्टी चला भैंस दूहा, बाकि कहानी अपने माई से पूछ लिहा.’
शरीर तो क्रिकेट में थक गया था. भैंस लगाने बैठे. तभी पड़वा पगहा (रस्सी) तोड़ा के पैर पर चढ़ गया. जैसे-तैसे कर दूध दूहें. दीदी मुझे कोसते हुए दूध लेने आईं.
दीदी : दिनभर क्रिकेट खेलता है. जब रात को दिखाई नहीं देता है तब घर लौटता है. और बाबू हर हफ्ते दस रुपए वाला बल्ब ले आते हैं.
मैं : क्या हुआ ?
दीदी : होगा क्या ?
दिख नहीं रहा यहां तक अंधेरा है. बाबू रसोई का बल्ब बैठका में लगा दिए हैं.
यह सुनकर मैं हंसने लगा.
दीदी भी कहां मानने वाली थीं बोलीं...दादी के कमरे में जाओ और उनसे पैसे लेकर बल्ब ले आओ.
मैं : नहीं जा रहा ...
एक कदम चलने की हिम्मत नहीं है. और तुमलोगों के पड़वा को एक दिन इतना पीटूंगा की सुधर कर जेंटलमैन बन जाएगा. आज फिर पैर पर कूद पड़ा है. जाने कौन सी दुश्मनी निकालता है मुझसे.
दीदी : तुम राम कथा मुझे मत सुनाओ, जाओ बल्ब लेकर आओ !
‘तुम्हारा क्रिकेट खाने को नहीं देगा.
बल्ब तुम्हे खाना खिला सकता है...,’
दुकान जाते समय मैं मन ही मन सोच रहा था. कल से एक ही मैच खेलूंगा. जल्दी से आकर मम्मी के पास बैठकर अखबार-वखबार पढूगा. तब दीदी की एक न चलेगी. इसका हमेशा कुछ ना कुछ घटा ही रहता है.
फेसपैक, मुल्तानी मिट्टी, मिर्ची, अदरक, धनिया, बिस्कूट, नमकीन, बदाम और फलां-फलां.
दीदी एमबीबीएस प्रथम वर्ष की परीक्षा देकर घर आईं थी. उनकी भी गिनती कि छुट्ट्यिां बची थी. एक दिन मेरा बीएचयू का रिजल्ट आ गया. बीएचयू के बीए आनर्स इंटेस में भारत में पांचवी रैंक.
दीदी को एक दो दिन में ही लखनऊ अपने कॉलेज जाना था. सो मुझे बनारस से बुलाया गया. मैं लगभग एक घंटे में घर पहुंच गया. सौभाग्य से सभी लोगबाग एक जहग रसोई में बैठकर बढ़िया खाना बनाने में जुटे थे. और मेरे करियर के बारे में समुन्द्र मंथन कर रहे थे.
लोगों के बीच से दीदी उठकर, पानी का गिलास और गुड़ थमाते हुए बोलीं. तुमको क्या करना है ?
क्रिकेट, दोस्त और घूमने के अलावा कुछ सोचे हो.
बाबूजी, टोकते हुए बोले करना कुछ नहीं है. बेटी, तुम्हारे जाने के बाद. इनको भी जेआरएस (बनारस कि सबसे टॉप इंजीनियरिंग की कोचिंग) में एडमिशन दिलवाकर, दुर्गाकुंड छोड़ देंगे.
मैंने गुड़ तो खाया था पर उसका स्वाद मुझे पता नहीं चल रहा था. गुड़ मीठा है या बेस्वाद. रसोई से उठती देशी घी की महक से मेरा दम भर गया था. दिमाग में सन्नाटा गूंजने लगा. मैं उबकर उठने वाला ही था कि मम्म्मी बोलीं. ये मीठी वाली पूड़ी चखकर बताओ कैसी बनी है..?
............आगे किस्त-3
साभार - बनारसी बचैलर
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