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The Indian Express |
अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन सीमा पर तैनात एक सैनिक से बात हुई। जो कुछ सुनने को मिला उस पर यकीन करना मुश्किल है। एक ऐसी कड़वी सच्चाई, जिसने दशकों से लगाए जा रहे जय जवान-जय किसान के नारे को कम से कम मेरे मन में तो पुर्जा-पुर्जा करके रख दिया है। कहानी सुनकर लगता है कि सैनिक देश के दुश्मन से ज्यादा अपने आप से और व्यवस्थाओं से अधिक लड़ रहे हैं। इन हालातों में वे कैसे अपने हाथ में बंदूक थाम कर खड़े हैं, अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।
आप भी पढि़ए एक सैनिक की आपबीती... मुझे चोट लग गई थी। टीटनेस का इंजेक्शन लगवाना था। यूनिट के मेडिकल कैम्प में इंजेक्शन खत्म हो गया था। एयरफोर्स की मदद से इंजेक्शन मंगवाया गया। एयरफोर्स ने हेलीकॉप्टर से इंजेक्शन गिराया। उसके बाद मुझे मिल सका। कुछ दिन बाद उसका बिल आया तो मेरे होश उड़ गए। 10 रुपए के टीटनेस के एक इंजेक्शन के एवज में मुझसे 5200 रुपए मांगे गए थे। मैंने पूछा तो जवाब मिला कि इसे यहां तक लाने में हुआ पूरा खर्च आपको ही उठाना पड़ेगा। आप बिल लगाएंगे तो बाद में आर्मी आपको लौटा देगी।
दुर्भाग्य से इसके बाद वहां की परिस्थितियों के कारण मेरे ब्रेन में क्लाटिंग हो गई। शरीर का आधा हिस्सा पैरालाइज्ड हो गया। यूनिट में इलाज हो पाना नामुमकिन था। एयरफोर्स से मदद मांगी गई, लेकिन वे टालमटोल करते रहे। मिनिस्ट्री से फोन लगवाने के बाद भी 14 दिनों तक उन्होंने हेलीकॉप्टर ही नहीं भेजा गया। 15वें दिन बॉर्डर से मुझे गुवाहाटी के अस्पताल में भर्ती कराया जा सका। तब तक मैं भगवान भरोसे ही था। इससे भी बढक़र शर्म तब आई, जब गुवाहाटी में मेरी देखभाल के लिए मां पहुंची। जिम्मेदारों ने मां के रहने-खाने का इंतजाम खुद करने का फरमान सुना दिया।
कहानी सिर्फ इतनी नहीं है। यह तो बीमार होने के बाद की स्थिति है। सामान्य दिनों में हालात इससे कहीं बदतर है। सेना के सारे भत्ते बंद कर दिए गए हैं। एचआरए बंद है, सीआईएलक्यू बंद है। कोई भी सैनिक 15 दिन से एक दिन भी बाहर रहता है तो टीपीटी के 1400 रुपए भी कट जाते हैं। जो इंक्रीमेंट पहले बेसिक का 3-4 फीसदी होता था वह अब घटकर 1 से 2 फीसदी हो गया है। डीए पहले 10 फीसदी तक बढ़ता था, अब नहीं बढ़ता।
यहां तक कि मसाला भत्ता भी बंद कर दिया गया है। मसाले के नाम पर आर्मी से अब सिर्फ नमक मिलता है, बाकी मसाला सैनिकों को खुद खरीदना पड़ता है। सभी की तनख्वाह से 500-600 रुपए कटते हैं, तब जाकर मेस में मिर्च व अन्य मसाले आ पाते हैं। सब्जियों का भी बुरा हाल है। या तो आती ही नहीं है या फिर आती हैं तो तब जब प्याज-टमाटर सड़ जाते हैं और आलू का दम निकल जाता है।
एक यूनिट में 1200 सैनिक होते हैं और चाइना की बॉर्डर पर 10-12 यूनिट मुस्तैद है। सभी देश के दुश्मनों से पहले इन अव्यवस्थाओं से लड़ रहे हैं, भीतर ही भीतर दरक रहे हैं। उबल रहे हैं, हर कोई बोलना चाहता है, लेकिन जानता है कि बोलने का मतलब ऊपर वालों से दुश्मनी मोल लेना है, नौकरी से हाथ धोना है। स्थिति यह है कि ठंड के समय बॉर्डर पर जाने वाला सैनिक जब तीन महीने में लौटकर आता है तो उसका 6 से 8 किलो वजन कम हो जाता है। दवाई मिलती नहीं है, पेटदर्द है तो कॉम्बिफ्लेम, सिरदर्द है तो कॉम्बिफ्लेम और बुखार हो तो भी वही कॉम्बिफ्लेम पकड़ा दी जाती है।
कुछ समय पहले एक जवान का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उसने वहां मिल रहे खाने की पोल खोल थी, अब मेडिकल ट्रीटमेंट और बाकी सुविधाओं की हकीकत सामने आई है। समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर हमारी व्यवस्थाओं को क्या हो गया है, जो इस हद तक गिर गई है कि एक जवान को 10 रुपए के टीटनेस के एक इंजेक्शन के लिए 5200 रुपए चुकाने को विवश कर रही है।
नहीं जानता इसके लिए सरकार दोषी है, आर्मी के अफसर जिम्मेदार हैं या पूरा सिस्टम इस हद तक सड़-गल गया है कि वहां न संवेदनाओं की कोई जगह बची है और न ही मानवीय मूल्य। रुपयों की खनक ने सबको अंधा, गूंगा व बहरा बना दिया है।
आखिर में सैनिक जब यह कहता है कि बॉर्डर पर बंदा खुद से लड़ रहा है तो ये शब्द कानों में सीसा घोल देते हैं। कलेजा जार-जार हो जाता है। किसान खुदकुशी कर रहे हैं और सीमा पर जवान इन हालातों से लड़ रहा है तो फिर हम क्या कर रहे हैं। नौकरी के कारण चुप रहना उसकी मजबूरी है, लेकिन क्या हम भी इस हद तक मजबूर हो चुके हैं।
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लेखक - अमित मंडलोई (वरिष्ठ पत्रकार) |
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