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मैंने अपनी कलम तोड़ दी है
लिखने को कुछ बाक़ी नहीं है
पन्नों पे स्याही के धब्बे
अब नीरस हो चले हैं
जिनके अंदर ना तो भावनाएं हैं
न ही किसी के हित की कोई बात
सब एक वैश्यालय की कठपुतली
या वो बिस्तर पे पड़ी लाश बन चले हैं
जिन्हें गुमान था अपनी कलम पे
आज वो एक दूसरे की ओछी आलोचना
करते नहीं थक रहे हैं
सारी कल्पनायें मृत हो चली हैं
अभिलाषाओं ने खुद को
फांसी के फंदे पे टांग रखा है
लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं
लाशों के मानिंद किताबें
अपने लिए एक कब्र का इंतज़ार कर रही हैं
कब इस भावहीन , निर्मोही समाज से
उन्हें छुटकारा मिलेगा
कब वो ख़ुद को इस नर्क से बाहर पाएंगी
अब उन पन्नों से भी खून रिस्ता हैं
कब कोई ऐसा इंसान आएगा
और उन उधड़ी हुई किताबों पे
एक सुनहरी ज़िल्द चढ़ा के
उन्हें इक नया जीवन प्रदान करेगा
कब कोई समाज से ठुकराया हुआ
इक पन्नों से उदय हुआ हुआ
एक लेखक जन्म लेगा
और इस समाज को अपने
अंदाज़ में जवाब देगा
तलवारों के बीच जाने कब
वो कलम प्रकट होगी
मैंने अपनी कलम तोड़ दी है
-सूरज सरस्वती
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