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तुम्हें जला देने के बाद ज़रूरी था तुम से जुड़ी हर चीज़ को मैं जला दूं , तुम्हारी पसंद की हर चीज़। तुम्हारी याद जो मेरी स्मृतियोंं पर कब्जा़ किए बैठी थी ,जैसे कोई विषैला कीट मेरे पूरे बदन में बार-बार अपना डंक छोड़ रहा है। जब तक तुम से जुड़ी हर चीज़ राख ना हो जाए तब तक शायद मुझे सुकून नहीं मिलता।
इसलिए जला दिए मैंने,
वो इक्कीस जोड़े झुमके जो तुमने कॉलेज के तीन सालों में मुझे लाकर दिए थे, जला दिए मैंने।
तुम्हारी सारी कमीज़ें, जिन्हें पहन कर आईने के सामने तुम्हारी नक़ल उतारा करती, उन कमीज़ो से मेरे बदन की महक आया करती थी ,
उन कमीज़ों को भी जला दिया है मैंने।
जलने जलाने के इस सिलसिले में अब बारी आई मेरे दुप्पटों की, दफ्तर जाते वक्त ओढ के बैठ जाते थे और मुझे सताते थे। जितनी दफ़ा लेट हुई हूँ सब तुम्हारी बदौलत,
तो वो सारे दुप्पटे भी जला दिए हैं मैंने।
ड्रेसिंग टेबल पर खुली रखी तुम्हारी काली कवर वाली डायरी पर सिंदूर गिरा था मेरा, फीके सफे़द पन्ने उसके कुछ नीले कुछ लाल हुए थे,
तो वो काली कवर वाली डायरी भी जला दी है मैंने।
और वो महरून रजाई वो कैसे भूल जाऊ ? जिसे हम दोनो ओढ कर मेरी लिखी कविताएं पढा करते थे , मेरी टूटी फ़ूटी कविताओं को बड़े ध्यान से पढ़ा करते थे तुम,
तो वो रजाई ,वो भी जला दी है मैंने।
और वो दो प्याले जिस एक प्याले में मेरी चाय, और दूसरे में तुम्हारी कॉफ़ी बना कर लाया करती थी। एक कप कॉफ़ी में ढाई चम्मच चीनी सिर्फ तुम पी पाते थे,
तो वो दोनो कप भी जला दिए हैं मैंने।
हमारा घर ,और तुम्हारा शहर छोड़े दो साल चार महीने और ग्यारह दिन हुए है , हमारे घर से बस वो आईना साथ लाई हूँ।अब दफ्तर के लिए लेट नहीं होती हूँ ,चाय में शक्कर नहीं लेती हूँ ,सब कुछ बदल देने के बाद जला देने के बाद सुकून नहीं आ रहा है ,मैं क्या फूंकना भूल गई हूँ ?
तुम्हारे घर के आईने ने जवाब दिया है मैं खुद को जलाना भूल गई हूँ।
By - स्वाति गोठवाल
(एक ऐसी लेखिका जो खुद से अब तक नहीं मिली।)
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