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'माँ तुमि मारा गिये बेचे ग्येछो'
यानि जीवन मृत्यु से बड़ी त्रासदी... ! है.. हो सकता है, हुआ है, जिसे इस सिनेमा में दिखाया गया है.. जब माँ जीवित थी, और प्रियनाथ अपनी शादी के महज एक बरस के अन्दर ही पत्नी और माँ में भेद करना सीख गया तो वह माँ के लिए त्रासदी थी.
उसने माँ के कहने पर उसके कमरे के छप्पर की मरम्मत नहीं करवाई, जबकि माँ के ही कहने पर अपनी पत्नी के साथ मेला देखने ज़रूर गया. मेले से लौट के आने के बाद उसने देखा कि माँ के कमरे पर आम का पेड़ गिर जाने की वजह से छप्पर का फूस गिर चुका है और माँ की मृत्यु हो चुकी है.
यह प्रियनाथ के जीवन में पहली त्रासदी थी..इसके बाद उसका पैर टूटा, नौकरी गयी, पत्नी के जेवर गये, उसकी साइकिल गयी और उसकी तरह और बाक़ी गाँव वालों के हक़ का अनाज दूसरे जंग ए अज़ीम के गोरे सिपाहियों के लिये विदेश गया.
इसके बाद लोग भी गाँव छोड़ कर जाने लगे और गाँव में मिलिट्री ऑफिस बनने के आसार शुरू हो गये.. प्रियनाथ एक साथ ऐसी सभी त्रासदियों को झेलते झेलते मनुष्य से कुछ और हो गया जो एक बच्ची के रोने पर उसे डरा कर चुप कराने के लिये दानवों सा चिल्लाता था.
जब लगभग सभी गाँव वालों को गाँव छोड़ कर जाता देख लिया तो प्रियनाथ अपने घर की तरफ़ लौटा, जहाँ उसके लिये उसकी आख़िरी त्रासदी इंतज़ार कर रही थी..वह लौट कर पाता है कि उसकी पत्नी फाँसी लगा कर आत्महत्या कर चुकी है, जिसका मुख्य कारण प्रियनाथ का क्रूर व्यवहार होता है.
सिनेमा : बाइशे श्राबोन
निर्देशक : मृणाल सेन
लेखक : विजय शर्मा
लेखक : विजय शर्मा
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