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Photo credit-firstpost |
आज जब मैं रस्ते से जा रही थी।
तभी किसी ने आवाज़ दी शायद कोई गरीब था वो।।
जो बोल रहा था साहब रोज़ डे! प्रोपोज़ डे तो रोज़ मनाते हो कभी कपड़ा डे या कम्बल डे भी मना लो।।
तभी जैसे कुछ टूटने की आवाज़ आयी।
जैसे कुछ रूठने की आवाज़ आयी।।
साहब! जो टूटा वो दिल था मेरा।
जो रूठा वो ज़मीर था।।
जो चीख कर सिर्फ यही बोल रहा था।
कोई तो सुन लो इस गरीब की पुकार।।
राजनेता को उसने यही जान कर मत दिया की शायद वो उसकी किस्मत बदलेगा।
पर किस्मत तो देखो उस गरीब की साहब! आज भी वो फुटपाथों पर सो रहा है।।
भीख मांगकर गुज़ारा कर रहा है।।
आज भी वो गरीब चीख कर यही कहता है जनाब कुछ न सही एक घर ही बना दो!!
आज अमीर और अमीर और गरीब और गरीब हो रहा है।।
साहब पर इस गरीब पर भी नज़र डाल लो।।
थोड़ी तो रहम कर दो साहब।।
कभी तो कम्बल डे और कपड़ा डे मना लो साहब।।
कभी तो हमारी झोली भी भर दो साहब।।
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By - अनुप्रिया (उभरती लेखिका, जिसके लेखन में भी नवाबी झलकती हैं।) |
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