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खेती किसानी हज़ारों साल पुरानी है और पराली भी कोई आज नहीं जलाई जा रही, तो दिल्ली या किसी और शहर को गैस चैम्बर बनाने का इल्ज़ाम किसान पर ही क्यों ? क्या हम खुद अपने को मौत के मुहँ में नहीं धकेलते जा रहे ? हमने और हमारे विनाश शील विकास ने गांव को गांव, कस्बे को कस्बा रहने दिया क्या ?
जो शहर तीन किलोमीटर के बाद ही खेतों या जंगलों से घिरना शुरू हो जाते थे. शहर और कस्बे या गांवों के बीच फासले होते थे. गाँव गाँव दिखता था. आज इन विकास प्राधिकरणों ने सारे फासले मिटा दिए हैं. गाँवो की पहचान खत्म कर दी है. खेतों पर कॉलोनियां बस गई हैं.पशुधन आवारा हो शहरों में उसी तरह भटक रहा है जैसे खेती छोड़ मज़दूर या रिक्शा खींच रहा किसान.
जो जानवर गांवों के बाग बगीचों में अपना जीवन काट देते, वो अब शहर में आतंक फैला रहे हैं..क्योंकि वो हमारे विनाशक विकास में रोड़ा बने हुए थे.
एक किसान वोट देने के अलावा और क्या दे सकता है..पर उसके वोट से केवल सत्ता मिल सकती है सत्ता के जलवे नहीं. लेकिन एक पूंजीपति विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा, देश की जीडीपी का महती अंग ही नहीं होता वरन राजनैतिक दलों और उनके नेताओं का पालनहार भी होता है. सत्ता हासिल करने की सारी ज़रूरतों को पूरा करता है, सत्ताधारी को मज़े दिलाता है, देश का नाम रोशन करता है.
देश को गैरज़रूरी नदियों, जंगलों से छुटकारा दिलाता है, एमबी वेलियाँ बना कर नेताओं और अफसरों के लिए ऐशगाहों का इंतज़ाम करता है. गैरज़रूरी मजलूमों की मौत के इंतज़ाम में हाथ बंटाता है. तो फिर शहरी गैस चैंबरों से कैसा डरना कैसा घबराना. यही गैस चैम्बर हमारे देश के विकास का आधार हैं. हिटलर ने भी तो यही किया था. रास्ते हमें दिखा तो गया और हम उन्हीं रास्तों पर नहीं चल रहे है क्या..?
By- Rajeev Mittal
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