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''हेल्लो--हाँ जी बोलिये --हाँ -हाँ ठीक है सर आपका माल रेडी है --हाँ जी --हाँ जी आप गाडी भेज दीजिये --जी नमस्कार।'' कहते हुए मालविका ने फ़ोन काट दिया।
''मैम --कस्टमर बहुत हैं लेकिन पीस इतने नहीं बना पा रहे हैं हम -!''
''तो और कर्मचारी बढा लो --देखो हमारे शोरूम में माल की किल्लत नहीं होनी चाहिये ठीक है।''
''जी मैम ।''
तभी एक लगभग पैंतालीस -छयालीस साल का आदमी मालविका के काउन्टर के आगे आकर खडा हो गया। और बोला ----
''मालविका मुझे तुमसे बात करनी है।''
''जी!'' मालविका उस व्यक्ति को देखकर आश्चर्यचकित रह गयी।
''क्या तुम दो मिनट मुझसे बात कर सकती हो ?''
''जी बोलिये।''
''यहाँ नहीं कर सकता -एक मिनट!''
''नहीं कोई बात नहीं --आपकी बात कोई नहीं सुनेगा बोलिये।
''मालविका ने उस आदमी को बैठने का इशारा करते हुए कहा।"
''मालविका आई एम सौरी --मैं बहुत शर्मिंदा हूँ कई दिनों से कोशिश कर रहा था तुमसे बात करने की मगर --मगर हिम्मत ही नहीं हुई तुम घर वापस आ जाओ।''
''क्यों मैं तुम्हारे हाथ की कठपुतली हूँ क्या --अरे मैने तुमसे माँगा ही क्या था बस एक मुट्ठी प्यार और तुमने मुझे क्या दिया सिर्फ और सिर्फ तिरस्कार। कितनी आसानी से कह दिया था तुमने ''तुम तो गोबर का ढेर हो जिन्दगी में कुछ नहीं कर सकती मेरी तो किस्मत ही खोटी थी जो तुम जैसी गँवार लड़की से विवाह कर दिया मेरा।''
''क्या कमी की थी मैने तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का ध्यान रखने में ? लेकिन तुमको तो मेरा समर्पण मेरी कमजोरी लग रहा था। मुझे और मेरे दूध -मुहे बेटे को छोडकर चले गये थे तुम। अब पंद्रह साल बाद अचानक मेरा बिजीनेस देखकर तुम्हारा प्यार उमड़ रहा है।
''नहीं मालविका ऐसे मत बोलो मैं बहुत शर्मिंदा हूँ -!"
''तुम्हारे शर्मिन्दा होने से क्या वो पंद्रह साल वापस आ जायेंगे जो मैने रो-रोकर खुद को सँभालने और अपने बेटे को पालने में गुजारे। यह मुकाम मैने बहुत मुश्किल से हासिल किया है। तुम्हारी दुनियाँ से बहुत अलग है मेरी दुनियाँ मैं कोई कठपुतली नहीं जिसकी डोर जिधर खींच दो उधर --!'
'
''लेकिन मालविका।''
''प्लीज राकेश !'' कहते हुए मालविका ने हाथ जोड
लिये।
''माँ यह कौन थे?'' मालविका के पुत्र विशु ने मुँह लटकाये जाते हुए राकेश को देखकर अपनी माँ से
पूँछा।
''मेरा गुजरा हुआ कल!'' कहकर मालविका ने विशु को सीने से लगा लिया गहरी साँस लेकर जुट गयी अपने अस्तित्व को और अधिक मजबूत करने में।
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