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5 दिसंबर 1955
अगर आप शेर ओ शायरी के शौक़ीन हैं या शायरों को पढ़ना पसंद करते हैं तो ये तारीख़ आपकी आँखों को नम करने के लिए काफ़ी है। रुमानी शायरी के जादूगर कहे जाने वाले असरार उल हक मजाज़ "मजाज़ लखनवी" आज के ही दिन ही दुनिया से रुख़्सत हुयें थें। मैं मानता हूँ बिना मजाज़ के ज़िक्र के रुमानियत लफ्ज़ मुकम्मल हो ही नहीं सकता। काफ़ी कम उम्र में दुनिया से चले जाना भी शायद मजाज़ की अदा में ही शामिल था कि आप उन्हें उसी अंदाज़ में याद करें जैसा वो चाहते थें। एक खूबसूरत शख़्सियत जिसने अपने ही जैसे कलाम दुनिया को दियें। मजाज़ के अशआरों में आपको हर रंग देखने को मिल जायेगा।
मैंने बहुत वक़्त बाद पढ़ना शुरू किया इस बात का दुःख हमेशा रहेगा। लेकिन इस बात की ख़ुशी भी मुझे उतनी ही होगी कि मैं लोगों को ये बता सकता हूँ कि हाँ मैंने मजाज़ को पढ़ा है। मजाज़ आपके इर्द गिर्द लफ़्ज़ों का ऐसा जाल बुन देते हैं जिससे निकलना नामुमकिन हो जाता है। ऐसा कई बार हुआ है कि उनको पढ़ते वक़्त मैं एक ही नज़्म कई बार पढ़ देता हूँ । ऐसा लगता ही नहीं की वो नज़्म या वो अशआर ख़त्म हो गया। मानो वो आपके साथ चल रहा है।
शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ये नज़्म मेरी पसंदीदा नज़्मों में से एक है। इसे पढ के लगता है ये कभी ख़त्म ही न हो ये यूँ ही चलती रहे ।
"निगाह-ए-लुत्फ़ मत उठा खूगर-ए-आलाम रहने दे
हमें नाकाम रहना है हमें नाकाम रहने दे
ब-ईं रिन्दी मजाज़ एक शाएर, मजदूर, दह्कान है
अगर शहरों में वो बदनाम है, बदनाम रहने दे"
~ मजाज़ ❤️
- सूरज सरस्वती
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वाह
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