- Get link
- Other Apps
- Get link
- Other Apps
वो हमेशा मुझसे कहता है कि "तुम लिखती क्यों नही।क्या तुमने लिखना छोड़ दिया? " और मैं हमेशा समय न होने का बहाना बना देती थीं ;पर सच तो ये था कि मेरी समझ में नहीं आता था कि क्या लिखूं? बहुत दिनों बाद उसकी ये बात फिर से याद आ गयी ,और मैंने आज लिखने का मन बना लिया था ;पर सवाल अब भी वही था कि ' क्या लिखूं ' ? सो मैंने आज शाम के किस्से से ही अपने लिखने की शुरुआत कर दी।
हुआ कुछ यूँ की,... हर शाम की बान्द्रा से दहानू लोकल निश्चित ट्रेन है हमारी।हर रोज़ ट्रेन के लिए भागना , मुम्बई में आम बात है।यूँ तो हर रोज़ कुछ नया होता हैं, जिन्हें अगर गौर किया जाए तो बहुत बड़ी बात हो और अगर नज़रअंदाज़ किया जाए तो कुछ नहीं।खैर हर रोज़ की तरह आज भी मैंने अपनी लोकल पकड़ ली थीं।जैसे तैसे मैं अंदर तो आ गयी पर इस भीड़ में बैठने के लिए सीट की उम्मीद करना बेकार है।सो दो सीटों के बीच मैंने अपने खड़े होने लायक जगह बनाई और लेखक ' विमल मित्र 'की चुंनिन्दा कहानियां पढ़ने लगी जिसे मैं पिछले 1 हफ्ते से पढ़ रही हूं। अब तक मैंने अपने सहूलियत के हिसाब से खड़े होने की पूरी जगह बना ली थी और अपनी कहानियों में घुस गई थी।इन कहानियों के बीच पौने दो घंटे का सफर कब निकल जाता है पता ही नही चलता।
![]() |
rediff.com |
आज भी मैं किताबों में खोयी थी कि अचानक एक मीठी सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।शायद उसी डब्बे में दरवाजे के पास खड़े लोगो मे से ही कोई लड़की या फिर कोई महिला मैं सही सही तो नही बता सकती पर वो मशहूर अभिनेता राजेश खन्ना का चर्चित गाना 'ये शाम मस्तानी ' गा रही थी ।उसकी आवाज इतनी मदहोश कर देनी वाली थी कि उसने मुझे अपनी किताब बंद कर देने पर मजबूर कर दिया । उसकी आवाज़ में वो जादू था कि किसी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता उसमे थी। शुक्र है मेरी कहानी खत्म हो चुकी थी और एक नई कहानी शुरू करने से बेहतर मैंने उसे सुन ना पसंद किया।
मैं कोशिश करती रह गयी कि मुझे उसका चेहरा दिख जाए। पर मैं नाकामयाब रही।इतने पर भी मैं कहाँ हार मान ने वाली थी मैं वही खड़े होकर अपनी एड़िया उचका उचका कर उससे भीड़ में उसका चेहरा तलाशने लगी।नतीजा वही...मैं फिर से उसका चेहरा नहीं देख सकी। मैंने उसे देखने के लिए अपनी पूरी ताकत और सारे पैतरे लगा लिए थे पर मेरी हर कोशिश बेकार साबित हुई।अगला स्टेशन आने तक अब वो आवाज़ भी अब बंद हो चुकी थी।कब वो अनदेखा चेहरा एक खूबसूरत आवाज़ लिए इन अनजान चेहरो में खो गया पता ही नही चला।इसलिए मैंने खुद ही अंदाजा लगा लिया कि शायद इस मस्तानी शाम की मंज़िल आ होगी और वो ट्रेन से उतर गयी हो।
![]() |
लेखिका - जागृति वर्मा ( लोकल ट्रैन की मुसाफ़िर पेवर मुंबईकर ) |
Comments
Post a Comment