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मुगलों के समृद्ध स्थापत्य कला , खानपान , भाषाई तहजीबियत , युद्ध कौशल के खूब कसीदे कढ़े जाते है। परन्तु उनके हिस्से दर्ज कई उपलब्धियां उनकी अपनी है ही नहीं। हालाँकि अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों की छिछली व्याख्या ने मुगलों को इनका बौद्धिक सर्जक बना दिया।
मसलन कई लोग इस बात का बड़ा भौकाल भरते है कि अगर मुग़ल न आते तो भारत में ताजमहल , लाल किला जैसी शाहकार इमारते न बनती। तो उन्हें ये बात अपने दिमाग के खिड़की-दरवाजों में बिठा लेनी चाहिए कि मुगलों से पहले भी भारत में अजंता , एलोरा की गुफाएं , खजुराहो के मंदिर , द्रविड़ और नागर शैली के खूबसूरत मंदिर उपस्थित थे। इसके अतिरिक्त बौद्ध स्तूपों जैसे साँची के स्तूप आदि भी उपस्थित थे। इसके अलावा क़ुतुब मीनार , अढ़ाई दिन का झोपड़ा आदि खूबसूरत इमारते भी थी। गुजरात की सुन्दर कांकरिया झील भी मुगलों ने नहीं बनवाई।
मुगलिया खाने की खूब चर्चा होती है, खासकर बिरयानी को लोगबाग मुगलों की विरासत बताते है। जबकि सच्चाई ये थी कि बिरयानी फारस की खाड़ी के देशों का व्यंजन है और मुग़ल तो तुर्क थे।
गंगा-जमुनी तहजीब , उर्दू और सूफीवाद के दर्शन के लिए लोगबाग अकबर को साधुवाद देते नहीं थकते। जबकि ये दर्शन अकबर से ढाई सौ बरस पहले अमीर खुसरो ने ही दे दिए थे। उन्होंने फ़ारसी में लिखा भी था कि,"जिहाले मिस्किन मकुन तगाफुल , दुराए नैना बनाये बतिया।" सूफी संत निजामुद्दीन औलिया जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक है वो भी अमीर खुसरो के समकालीन है।
इसके अतिरिक्त लोगबाग मुगलों के सैन्य कौशल को बखानते नहीं थकते। तो एक बात यहाँ इसके विरोध में काबिल-ए-गौर है। मुगलों का शासन गुजरात तक था लेकिन वो गोवा के बंदरगाह नहीं जीत पाये। पुर्तगालियों की कार्टेज-आर्मेडा-काफिला पद्धति के तहत मुगलिया जहाजों को भी सामुद्रिक व्यापार के बरक्स पुर्तगालियों से अनुमति लेनी पड़ती थी।
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By- संकर्षण शुक्ला |
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