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जवानी है दीवानी याद है ना। उसका क्लाइमेक्स भी न्यू ईयर ईव पर शूट किया गया है। अपना सपना पूरा करने के लिए पीठ पर हमेशा बैग बांधकर घूमने वाला कबीर दिल के हाथों मजबूर हो जाता है। जो पिता को अंतिम विदाई तक नहीं दे पाता है, उसे समझ आता है कि उनकी सहधर्मिणी भले ही, उसकी मां न हो, लेकिन कुछ तो है। अहसास होता है कि दुनिया घूमने के लिए इश्क का गला घोंटना जरूरी नहीं है। अब वह नयना का हाथ थामकर ही सात समुंदरों के पार जाना चाहता है। थ्री इडियट में रेंचो को आखिर में ही महसूस होता है कि किस करते वक्त नाक बीच में नहीं आती है। सवाल यही है कि आखिर ये सारी समझ आखिर में ही क्यों आती है।
वे बहुत समझदार लोग रहे होंगे, जिन्होंने वक्त का सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, महीने और सालों में बंटवारा किया। वे वक्त के महीन से महीन टुकड़े करते गए, ताकि समझ की पुडिय़ा खोलने में देर न की जाए, लेकिन हम हैं कि किसी खास वक्त के इंतजार में सदियां गुजारने को तैयार बैठे हैं। अक्सर सुना होगा लोगों को कहते हुए, अब इस बार तो जो होना था हो गया, अगले साल से जमकर पढ़ाई करूंगा, सिगरेट को बिल्कुल हाथ नहीं लगाऊंगा, अपनी फिटनेस का ध्यान रखूंगा, परिवार को समय दूंगा।
ऐसे भी लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने ढेर सारे काम किसी डिब्बे में पैक करके घडिय़ों की सुइयों के पीछे छुपा दिए हैं। कागज पर लिख, बोतल में बंदकर समुंदर में फेंक दिए हैं। ये सारे लोग इंतजार कर रहे हैं कि जब वे 40 के होंगे तब रिटायरमेंट लेकर पढ़ेंगे-लिखेंगे या फिल्में बनाएंगे। बेटी की नौकरी लगने के बाद सबकुछ छोडक़र योग को जीवन समर्पित कर देंगे। बच्चे बड़े हो जाएंगे तो डांस सीखेंगे, बस्तियों में जाकर बच्चों को पढ़ाएंगे, बुजुर्गों से उनका हाल पूछेंगे। कोई आश्रम खोलेंगे, किसी स्टार्ट अप को फाइनेंस करेंगे। किसी दिन तसल्ली से बैठकर बगीचे के बेंच पर बच्चों को खेलते देखेंगे। उनके साथ रस्सी कूदेंगे, स्वीमिंग पूल में डुबकियां लगाएंगे।
जिस दिल पर हाथ रख देंगे, ऐसी अनगिनत ख्वाहिशें वक्त की पर्तों में करीने से सजाई हुई मिलेंगी। वे सब वक्त के अनूठे सफर पर हैं, जिसकी घड़ी का पेंडुलम बाकी घडिय़ों के मुकाबले बड़ा तेज भागता है। लोगों के लिए दिन में 24 घंटे होते हैं, लेकिन इन महाशय का दिन सिकुडक़र चौथाई हो गया है। जब मिलेंगे, यही कहेंगे, क्या करूं यार टाइम ही नहीं मिलता है। इस संडे को तो नहीं, लेकिन अगले के अगले संडे को आना कुछ देर साथ बैठेंगे, बड़े दिन हो गए हैं। और यकीन मानें, ऐसा कोई संडे शायद ही कभी आ पाए।
वे जाने किसी घड़ी, किस पल का इंतजार कर रहे हैं। कोई लम्हा कहीं से गिरेगा और उसी को थाम कर वे अपनी ख्वाहिशें और शौक पूरा करने निकल पड़ेंगे। जबकि सब जानते हैं, ऐसा कोई लम्हा, किसी वृहस्पति ग्रह से नहीं गिरने वाला है और न ही कहीं दुबका बैठा कोई पल पेड़ से आपके सिर पर टपकेगा और आपकी सारी घडिय़ां बदल देगा।
प्रेस करने से पहले कॉटन के शर्ट में जितनी सिलवटें नहीं होती, उससे कहीं ज्यादा तहों के पीछे हमने अपनी ख्वाहिशों को छुपा लिया है। वह फुटबाल की तरह जब-तब हमारे पैरों से टकराती है और हम हर बार उसे किसी न किसी बहाने से किक मार देते हैं। अभी वक्त कहां हैं। अगर अभी वक्त नहीं है, तो फिर कभी वक्त नहीं है।
आईबी के एक अफसर को मैं जानता हूं, मेरे शहर धार में पदस्थ थे। उनका नाम अरस जी है। रिटायरमेंट के कोई दो-तीन साल पहले एक दिन कुछ बच्चों के साथ धार के राजबाड़ा पर मिले। मैंने कुतुहलवश पूछा तो कहने लगे, संगीत महाविद्यालय से गायन में छह वर्ष का डिप्लोमा कर रहा हूं। ये बच्चे मेरे सहपाठी हैं। सभी मुझे दादाजी बोलते हैं, बड़ा अच्छा लगता है। उस वक्त उनके आंखों की चमक में कई लम्हे एक साथ जगमगा उठे थे। उसकी रोशनी उनके अंतर में भी उजास भर रही थी।
इसलिए वक्त के महीन से महीन टुकड़े को भी सर्दी जाने के बाद रजाई की तरह पलटकर नई शुरुआत की जा सकती है। एक पल जो अभी बीता, उसके बाद भी सोचा जा सकता है, जो हुआ सो हुआ, अब कुछ नया करते हैं। साल का बदलना दस्तूर है, उसे बदलना ही होगा। उसके बदलने से पहले अपने आप को बदलने के लिए बहुत मौके हैं।
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