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कहीं घूमने निकलो तो फ़िज़ूल की दिक्कतें घर की खूँटी पर और बस
पर चढ़ते ही ऑंखें खिड़की के शीशें पर टांग दो तो अच्छा है. हवाओं को रंग नहीं होता, चलने का कोई ढंग नहीं होता,
शक्ल सूरत तो वैसे भी नही होती, होता है तो
सिर्फ एक अहसास होता है उनकी मौजूदगी का. जिसे महसूस किया जा सकता है.
ऐसे ही किसी हवा
की झोके में तलाश में उस दिन कहीं जाने प्लान जो अन्दर तक बस झकझोर दे. अगले दिन
बर्थडे था, और इस बार पहले से ही प्लान था. शहर के शोर के दूर इस बार कुछ अलग कहीं
दूर जाना है, वैसी भी हर बार कौन सा कुछ कुछ खास होता है.
दिनभर की 30-35 कॉल पिक-थैंक यू-कट, व्हाट्पएप
और फेसबुक मैसेज, के रिप्लाई बस! खुद के बर्थडे के दिन खुद
के लिए कुछ बचता ही नही था, सारा दिन तो बस यूं गुजर जाता
था.
इसलिए एक रात
पहले बस निकल लिए दिल्ली से हिमाचाल और पंजाब की तरफ जाने वाली ज्यादातर बस
कश्मीरी गेट ISBT से होकर ही निकलती है. इसलिए रास्ता भी उधर से था और मंजिल भी वहीं.
तक़रीबन आधी रात में इस सफ़र की शुरुआत की तो दिल्ली में मौसम फिर भी सही था,
लेकिन जैसे जी आगे बढ़ते गए ठण्ड बढती गई. वैसे रात में यूं बस के
शीशें से झांकते हुए, सफ़र करना पड़ा अच्छा लगता है. हाई-वे
रात के अँधेरे में गुमशुदगी में ऐसा लगता है, खुद को तलाशते हुए बस भी फ़र्राट भर रहीं हो.
हलकी
नींद से भरी आँखों को शीशे इन दीवारों में टांग देते हैं, देखते हैं उस तरह
जो कुछ भी दिखता है. उंची-नीची रोड, अड़बंगी पहाड़ी, ढेर सारे पत्थर, कहीं बहता पानी, कहीं छोटे घर और ज्यों कहीं बस के सरकते पहियों देखते हुए नजर हल्की सी
सरकी तो कई फीट गहरी खाई. खिड़की पर टंगी इन आँखों ने सब देख लिया, और सब कुछ समेट भी लिया. थोड़ा डर, थोड़ी ख़ुशी और थोड़ा
सुकूं.
आगे चल कर, हमारी बस भी एक
अनजान ढाबे कहीं रुकी. उतरकर चाय की एक छोटी खुराक लेना जरुरी समझा. वैसे भी अभी
बस को चलने में समय था, तो सोचा चलो माहौल लिया जाए बाहर का.
लेकिन बाहर का माहौल ऐसे की दो मिनट में आदमी से मोर बना दिया. यहां बाहर की करारी
ठण्ड से अंदाज़ा लगाया जा सकता था, आगे का मौसम कैसा होने
वाला है. अन्दर चाय का जो शौक पल रहा था, बाहर आकार वो जरूरत
में तब्दील हो गया. बस में ज्यादा लोग नहीं थी, कुछ ने कुछ
भर के खाया-पीया, हमने भी बस चाय पी. अच्छा भली ठण्ड में,
चाय की गर्माहट से भरा 3 इंच का कप ही था,
जो इस 6 फीट के आदमी को गर्मी दे रहा था. रात
अँधेरा और शायद नेशनल हाईवे होने की वजह काफी सन्नाटा था. वो सन्नाटा जिसमे रात के
अँधेरे में बढती ठण्ड में गिरती ओस की बूंदों को महसूस करने के साथ आसानी से सुना
जा सकता था. इसी बीच नजर सामने खड़ी एक कार की छत पर पड़ी, जो
सामने लगे खम्बे की लाइट में बिलकुल मोतियों की तरह से दूर से ही चमक रही थी. रात
के अँधेरे में सिमटी ओस की बूंदे मोती की शक्ल ले चुकी थी.
आगे सफर लंबा था.
चाय की चुस्की ले ही चुकी थी. बावजूद इसके बस में लगने वाले मद्धम झूलन ने सोने को
मजबूर कर दिया, सुबह जब अंगड़ाई टूटी तो हमने आधे से ज्यादा रास्ता पूरा कर चुके थे. आगे
बस करीब 50 किलोमीटर का ही रास्ता बचा था. सूरज निकल ही चुका
और रास्ता भी साफ़ था. सोचो ये हलकी नींद से भरी आँखों को शीशे इन दीवारों में टांग
देते हैं, देखते हैं उस तरह जो कुछ भी दिखता है. उंची-नीची
रोड, अड़बंगी पहाड़ी, ढेर सारे पत्थर,
कहीं बहता पानी, कहीं छोटे घर. ज्यों कहीं बस
के सरकते पहियों देखते हुए नजर हल्की सी सरकी तो कई फीट गहरी खाई. खिड़की पर टंगी
इन आँखों ने सब देख लिया, और सब कुछ समेट भी लिया. थोड़ा डर,
थोड़ी ख़ुशी और थोड़ा सुकूं कुछ देर का.
आखिर में हमारी
बस को उसका स्टॉप मिला,
और हमें हमारा. सफ़र लम्बा था, बस से उतरे है,
अंगड़ाई ली. बस से उतरते ही, आसपास जो कुछ भी
दिखा एक बार जी भर के देखा, क्योंकि वहां बहुत कुछ अलग था और
बहुत कुछ नया. मुझे लगता है ये अच्छी चीज़ है.
अगर आप
कहीं घूमने जाएं तो कम से कम एक बार अपने सफ़र को शुरू करने से पहले उस जगह को खुली
आंखो से मन भर देख लेना चाहिए, एक अनोखी उर्जा मिलती, जो सफ़र भर आपके साथ रहती है. इसका एक कारण और सफ़र खत्म करने के बाद उस जगह
जब आप वापस आते हैं, तो बहुत कुछ बदला और रोमांचकारी मिलता
है, क्योंकि वापसी में आपके पास वो ढेरों अनुभव, यादें, तस्वीरें बहुत कुछ होता है. बस स्टॉप पर चाय
के साथ हल्का नास्ता और फिर आगे की तैयारी.
धर्मशाला से मैक्लोडगंज के बीच करीब 10KM का रास्ता है,
जहां जाने के लिए धर्मशाला से ही थोड़ी थोड़ी देर में बस मिलती है.
मैक्लोडगंज ऊंचाई पर स्थिति है.धर्मशाला से बस से जाने के दौरान घुमावदार रास्ते
से गुजरती बस बखूबी इसका अहसास करा देगी. रास्ते में पड़ने वाले ढेरों चीड़ के
काटेदार पेड़ पूरी हिल स्टेशन का भरपूर फील देंगे. बाकि हर टूरिस्ट प्लेस की तरह
स्टॉप पर पहुंचने के बाद, होटल और रेंट पर हॉस्टल देने वालों
की भीड़ लगना, यहां भी आम है, अगर पहले
से कोई बुकिंग वगैरा नहीं की हो तो मैक्लोडगंज में ही तमाम होटल 500 से 1500 तक आराम से मिल जाएगें. जहां की बालकनी में
बैठ के आराम से पहाड़ो की ऊँचाइयों में बने सीढ़ीदार घरों का दीदार किया जा सकता है.
अलग अलग रंगों में रंगे सभी घर दूर पहाड़ों से की ऊंचाई से बेहद खूबसूरत नजर आते
हैं.
यहां के बारे में
कई जगह कहा और लिखा गया है,
कि इस शहरों को पैदल या बाइक पर ही घूमना ही सही है. बाइक और स्कूटी
यहां दुकानों पर आसानी से मिल जाती है, लोग अपनी सुविधा के
अनुसार रेंट पर ले सकते है. बावजूद इसके अगर आप घुमने फिरने के शौक़ीन है और समय
निकाल के यहां आए हैं, तो पहाड़ों पर बने इस खूबसूरत शहर को
पैरों से नाप देना है. अच्छा है!
होटल में समान
रखकर, पहले
ही डीसाइड था, कि ट्रेकिंग कर रात तारों के रौशनी में
गुजारनी है. तक़रीबन 9 किलोमीटर की ऊंचाई तय कर के Triund
Top तक पहुंचने में 4-6 घंटे का समय लगता है.
सफ़र शुरू करने से पहले लगा कुछ खाने लेने बेहतर होगा. पहाड़ो
की अगर बात की जाए, तो उत्तराखंड हो या हिमाचल, पहाड़ो में खाने का जायका ही दूसर होता है. मैक्लोडगंज की मेन मार्केट में खाने की खाने पीने ढेरों चीज़े आसानी से मिल जाएंगी,
मोमो के छोटे-छोटे काउंटर तो आपको हर दस कदम मिल जाएंगे. इसके आलावा
चिकन के शौक़ीन हैं तो यहां किसी रेस्त्रां में रुक कर स्वाद लिया जा सकता है.
ज्यादा पानी और कम मसाले में बने इस चिकन में पड़ी एक एक सब्जी के रंग को थाली में
घुस कर आँखों से बखूबी टटोल जा सकता है.
अच्छे से खाना
पीना खाकर यहां से शुरू होता है,
इस सफ़र का असली आनंद यानि ट्रेकिंग. करीब 9 KM लम्बी उंची घुमावदार पहाड़ी में चढ़ने में 5-6 घंटे का
समय लगता इसलिए यहां टीम के साथ ट्रेकिंग सुबह दस बजे ही शुरू हो जाती है, ताकि शाम होने से पहले हर ट्रेकर टॉप पर बने कैंप तक पहुँच जाए. हम पहले
से ही लेट थे, खाने पीने के चक्कर में और लेट हो गए थे. ऊपर
जाने का रास्ता दो किश्तों से होकर,गुजरता है. अगर आप अपना
सफ़र थोड़ा हल्का करना चाहते हैं तो 3KM का रास्ता कैब से पूरा
कर चेक पॉइंट से ट्रेकिंग शुरू कर सकते है, वरना रोमांचक सफ़र
चाहते है तो बस बैग टंगिये और शुरू हो जाइये. मैक्लोडगंज बाज़ार में लगभग जरूरत का सारा सामान आसानी से मिल जाता है,
रास्ते के लिए पानी, खाने का हल्का सामान,
जरूरत का छोटामोटा सामान रखा सकते हैं.
तीन किलोमीटर की
चढ़ाई के बाद, चेकपॉइंट बनाया गया है. जहां हर यात्री को अपनी और ग्रुप आईडी दिखानी होती
है, ताकि किसी तरह कोई अनहोनी होने पर कम से कोई रिकॉर्ड
दर्ज रहे. शुरुआत का सफ़र तो हल्का बस कुछ ऊंचाई तक उबड़-खाबड़ और घुमावदार रास्ते दिखते
गए और हम उन पर बस बढ़ते गए. सुरक्षा के नजरिए से कुछ सकरे रास्तों पर हिमाचल सरकार
द्वारा फेंसिंग लगाई गई थी. बाकि पूरी ट्रेकिंग के दौरान हमारे साथ हैप्पी भाई थे,
हमारे गाइड जो रास्तेभर हमे हिमाचल की घुमावदार रास्ते से लेकर
घुमावदार राजनीति सभी कुछ बतियाते हुए ले ऊपर Triund Top तक ले गए. शुरुआत में सब बड़ा आसान लगता है, लेकिन
चढ़ती पहाड़ी और घटते सूरज के साथ, ताकत भी जैसे घट रही थी.
आने वाले टूरिस्टों की सुविधा के लिए ट्रेक की शुरुआत से ऊपर तक हर कुछ किलोमीटर
पर लोकल लोगो ने छोटी छोटी दुकाने सजा रखी हैं. जहां, रुककर
चाय के चुस्की खिंची जा सकती है.
सफ़र के दौरान इस
रास्ते पर एक चीज़ का ध्यान रखना बेहद जरुरी है, आप कैमरा और दिल में जितनी चाहे यादे
यहाँ से लेकर जा सकते है. रैपर और प्लास्टिक की बोतल के रूप में अपनी कोई भी याद
यहाँ छोड़ के न जाए, वरना उसे समेटने में लोगों को काफी
जेहमत उठानी पड़ती है. जिस पथरीले रास्ते में हमारे जैकेट और कुछ किलो का बैग नहीं
उठता वहां,आपके फेंके हुए कूड़े को बोरियों भर के लोग बाद में
नीचे तक ले जाते है.
बाकी ट्रेकिंग के
दौरान जिस तेजी से आप ऊपर बढ़ रहे होंगे. उतनी तेजी से ऊंचाई पर सजी के दुकानों पर
चाय के दाम भी बढ़ते जाएँगे. गिरते-पड़ते शाम होने के साथ ही, त्रिउंड टॉप सूरज को ढलते हुए देखने का वो शानदार नजार हमारी आँखों से छूट गया
क्योंकि सूरज ढलने के बाद हम टॉप पर पहुंचे थे. ऊपर ठण्ड का हाल नीचे से कई हाथ
आगे, तापमान यहीं कोई 1-2 डिग्री के
आसपास है. सुई की तरह चुभती तेज हवाओं से बचने का एक ही सहारा, रात के अँधेरे में एक कोने में जलती आग किनारे खुद को समेट लो. हैप्पी भाई
ने एक कैंप पहले ही दे दिया था. सामने ये कैंप और उसके अन्दर पड़ा एक स्लीपिंग बैग.
2800 मीटर की ऊंचाई, तारो से भरी रात
और एक खुला आसमान.
सुबह हुई मौसम
कुछ साफ था, कैंप से निकल कर देखा तो सामने आसमान चूमती ऊंची पहाड़ियां, जिन्हें थोड़ी थोड़ी देर में बादल ढँक रहे थे. कैंप से निकलते है, चेहरे और खुले हाथो पर ठंड हवाओं के थपेड़ों के अहसास बखूबी हो रहा था,
देखते ही देखते ये ठण्ड हवाओं के थपेड़े रुई के छोटे फाहे(गोले) में
बदल गए. जिस कैंप से निकलकर हम मौसम का लुत्फ़ और Triund टॉप
की सुबह देखने के लिए बस निकले ही थे, आसमान से गिरती
स्नोफॉल ने हमारा मजा और दोगुना कर दिया. करीब 15 मिनट तक
चली इस स्नोफॉल ने वहां के मौसम में और रंग भर दिया था. हरी घास पर हर तरफ लगे
छोटे छोटे कैंप को देखकर ऐसा लगता मानो किसी बड़े से बगीचे में छोटी छोटे फूल हों.
बेहतरीन सुबह, पहाड़ों की ऊंचाई,
सरप्राइज स्नोफॉल और गरमा गर्म चाय और कैंप में मिले आलू के पराठेने
हमारी सुबह उम्मीद से दुगुनी बेहतर बना थी. अब बारी थी, वापस
नीचे उतरने नाश्ता वगैरा करने के बाद हम एक बार फिर से उसी रास्ते से हैप्पी भाई
के साथ नीचे उतरना शुरू किया. सुबह का समय मौसम साफ़ होने की वजह से Triund टॉप से धर्मशाला स्टेडियम का शानदार नजारा आँखों के सामने था. इसी तरह के
ढेरों नजारों को अपनी आँखों में समेटे हुए, पहाड़ों से उतरते
हुए. वापस मैक्लोडगंज आ गए.
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By - प्रशांत वर्मा |
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