- Get link
- Other Apps
- Get link
- Other Apps
आज महादेव देसाई का जन्मदिन है।
यूँ तो महादेव देसाई 1917 से ही महात्मा गांधी के संपर्क में आ गए थे और उनके लिए कुछ-कुछ अनुवाद इत्यादि का काम करने लगे थे। लेकिन असहयोग आंदोलन के दौरान जब गांधी पूरे देश में घूम रहे थे, तो महादेव देसाई चाहते थे कि गांधी हमेशा उन्हें अपने साथ ही रखें। फिर भी, पूरी तरह समर्पित हो जाने को लेकर दोनों के मन में कुछ दुविधाएँ थीं।
इस बारे में गांधी ने अपनी गया यात्रा के दौरान ही 13 अगस्त, 1921 को महादेव देसाई को पत्र में लिखा-
“किसी के प्रति आत्मार्पण में मनुष्य की अपनी मौलिकता का लोप न होता है और न ही होना चाहिए। अर्जुन ने कृष्ण से सवाल पर सवाल पूछने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आत्मार्पण का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य स्वयं अपनी विचार-शक्ति ही गँवा बैठे।
बल्कि शुद्ध आत्मार्पण से विचार-शक्ति कुंठित होने के बजाय और अधिक तीव्र हो जाती है। ऐसा मनुष्य यह समझकर कि उसका एक अंतिम अवलंब तो है ही, वह अपनी मर्यादा के भीतर रहता हुआ हजारों प्रयोग करता है। लेकिन उन सबके मूल में उसकी विनम्रता रहती है। उसका ज्ञान और विवेक रहता है।
मेरे प्रति मगनलाल की आत्मार्पण की भावना बहुत अधिक है, लेकिन फिर भी उसने स्वयं विचार करना कभी नहीं छोड़ा, ऐसी मेरी मान्यता है। तुम्हारा आचरण उससे भिन्न है, तुममें साहस की कमी है। जब भी सहारा मिलता है, तुम साहस खो देते हो।
बहुत ज्यादा पढ़-लिख लेने की वजह से तुम्हारी अपनी सृजन की शक्ति कुंठित हो गई है, इसी कारण तुम सहकारी होना चाहते हो। मनुष्य स्वतंत्र कार्य करने की इच्छा रखते हुए भी अति विनम्र हो सकता है।
तुम जिस दृष्टि से मेरे साथ रहना चाह रहे हो, वह शुद्ध है, लेकिन वह भ्रमयुक्त है। तुम तो केवल पश्चिम का अनुकरण करना चाहते हो। यदि मैं किसी मनुष्य को केवल इसलिए हमेशा अपने साथ रखूँ कि वह मेरे कार्य का लेखा-जोखा रखे, तो मेरा यह व्यवहार अस्वाभाविक हो जाएगा।
कोई सामान्यतः मेरे साथ रहे और मेरे कार्य का लेखा अदृश्य रूप से रखे, यह एक बात है, और कोई इसी इरादे से मेरे साथ रहकर लेखा रखे यह बिल्कुल दूसरी बात है।
...लेकिन मैं यह तो चाहता ही हूँ कि तुम मेरे साथ हर वक्त रहो। तुम्हारी ग्रहणशक्ति और तैयारी अच्छी है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी सभी बातें जान लो।
मेरे मस्तिष्क में विचार बहुत हैं, लेकिन वे प्रसंग आने पर ही व्यक्त होते हैं। उनमें कई सूक्ष्मताएँ होती हैं जो किसी को दिखाई नहीं देतीं। ...यदि तुम जैसा कोई मनुष्य मेरे साथ में रहे, तो वह अंत में मेरे काम को हाथ में ले सकता है, यह लोभ मेरे मन में रहता है।
अभी मेरी इच्छा तुम्हें किसी एक काम में लगा देने की नहीं होती। बल्कि मैं तुम्हें अनुभव कराना चाहता हूँ। फिर जिन लोगों को मैं जानता हूँ, उन सबसे तुम्हारा संपर्क हो जाए, तो भविष्य में हमारा कामकाज बहुत आसानी से चल पाएगा।”
By - अव्यक्त
Photo credit - counterview.org
Reactions:
- Get link
- Other Apps
Comments
Post a comment