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By - अंकेश मद्देशिया
-प्रो० पुरूषोत्तम अग्रवाल..
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Credit - Zeenews |
हमारा समय क्रूर हिंसा के साधारणीकरण और विकेंद्रीकरण का समय है। और चीजों का विकेंद्रीकरण हुआ हो या ना हुआ हो सत्ता का, धन का , उद्योग का। लेकिन क्रूरता और हिंसा का अभूतपूर्व विकेंद्रीकरण हुआ है ।
संसार के सभी धर्मों में पवित्र और अपवित्र दो प्रकार की हिंसा पाई जाती है । संसार का हर धर्म पवित्र और अपवित्र हिंसा के बीच अंतर करता है। हत्या अस्वीकार्य है ,वध न केवल स्वीकार्य है बल्कि कई स्थितियों में करणीय भी है ।
जिसे हम चिंताजनक हिंसा मानते हैं मानव इतिहास में देखें तो उससे कहीं ज्यादा चिंताजनक हिंसा वह है जिसे हम पवित्र मानते हैं।अगर समूचे मानव इतिहास में हुई हिंसा - हत्याओं ,वधों बलात्कारों , लूटपाटों का कोई विवरण तैयार किया जाए तो व्यक्तिगत उन्माद के कारण हुई हिंसा किसी न किसी श्रेष्ठ और पवित्र उद्देश्य के लिए हुई हिंसा के पासंग भी नहीं है ।
हिंसा - संगठित और सामूहिक हिंसा - इकबाल इसलिए बन पाती है , सजेस्टिव पावर वह इसलिए अख्तियार कर पाती है कि अंततः हिंसा मनुष्य की आत्मनिर्वासन कि उसकी सेल्फ एलिनियेशन की सर्वाधिक सघन को सर्वाधिक आत्मसातीकृत अभिव्यक्ति है । अपने आप से अलग हुए बिना, अपनी मनुष्यता से दूर हुए बिना, आप ना हिंसा कर सकते हैं और ना ही जाग उसे उचित ठहरा सकते हैं इसलिए आपको कहना पड़ता है कि क्या करें हम मजबूर हैं।
-प्रो० पुरूषोत्तम अग्रवाल..
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