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By - गोपाल यादव
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एक बार फिर हम अजनबी हो गए मगर इस बार.... इस बार मैं सिर्फ़ तुमसे ही अजनबी नहीं हुई बल्कि इस दुनिया के एक ख़ूबसूरत पहलू से भी अजनबी हो गयी। अनजान हो गयी। मैं इस दुनिया के एक कोने तक ही सिमट कर रह गयी हूँ जहाँ खुशी की मद्धम मद्धम रोशनी आती तो है मगर वो भी छन कर नाकाफी हो जाती है। मैं इस दुनिया को नहीं जानती। मैं यहाँ नहीं रहना चाहती। नहीं जीना मुझे ऐसी ज़िल्लत भारी ज़िन्दगी। एक आईना जो मेरा सबसे क़रीबी साथी हुआ करता था ग़म का, चैन का, खुशी का मगर अब डर लगता है मुझे उससे। मैं अपना ही अक़्स देखकर चीख पड़ती हूँ। ख़ुद से ही डर लगने लगा है। आईने के क़रीब से गुजरने में भी डर लगता है। उसके नाम से ही रूह काँप सी जाती है। जब भी उस पर नज़र पड़ती है तो बस वही पुराने दिन आँखों के सामने घूमने से लगते हैं। आगाज़ से अंत तक का हर वो पल आँखों में पानी बन कर सिमट जाता है जो कभी मैंने और तुमने साथ में गुजारे थे।
याद है तुम्हें जब हमारी पहली मुलाकात दीक्षित प्रकाशन के बुक स्टाल पर बड़े ही दिलचस्प ढंग से हुई थी। तब भी तो हम अजनबी ही थे। तुम और मैं एक ही किताब को लेने पर झगड़ पड़े थे। फिर किसी तरह स्टॉल वाले ने हम दोनों को अलग अलग किताबें मँगाकर दी थी और तब जाकर हमारे बीच का झगड़ा सुलझा था। ....और देखो न फिर देखते ही देखते हम कितने करीब आ गये। आकाश याद है तुम्हें, जब हम उस रात समंदर के किनारे बैठे यही सब पुरानी बातें कर रहे थे कि कैसे हम मिले और इतने घुलमिल गए कि सोच कर ही अजीब लगता है। उस रात हमने कितनी बातें की थी और तभी तो तुमने मुझे कवि और लेखक का अंतर समझाया था और कि मंटो तुम्हारे पसंदीदा कहानीकार हैं। उनके अफ़साने तुम रोजाना सोने से पहले पढ़ा करते थे और साथ ही बहुत कुछ। उस रात हमने अपनी पूरी जिंदगी में सबसे ज्यादा बातें की थी। मुझे आज भी वो सब कुछ याद है। मालूम नहीं तुम्हें याद हो कि न हो।
सब कुछ ठीक चल रहा था। माँ- पापा भी तुमसे मिलकर खुश थे। वो भी तुम्हें पसंद करते थे। एक दिन मैंने माँ और पापा को तुम्हारी और मेरी शादी की बात करते सुना था। मैं बहुत खुश थी। तुम्हें ये सरप्राइज जल्द से जल्द देना चाहती थी। सोच रही थी, कब ये रात बीते और मैं तुमसे मिल कर ये खुशख़बरी तुम्हें दूँ। अगले दिन मैं तुम्हारे घर गयी मगर तुम वहाँ नही मिले। फ़ोन भी नहीं लग रहा था तुम्हारा। मुझसे रहा नहीं जा रहा था। बस किसी भी तरह तुम्हें हमारी शादी की बात बतानी थी। मैंने सोचा चलो बाद में आती हूँ, शायद कहीं काम से गये हो। मैं अगले दिन गयी, तुम फिर भी नहीं मिले और इस तरह मैंने तुम्हारे घर के कितने ही चक्कर लगाये मगर तुम नहीं मिले। दिन हफ़्तों में बदल गये और हफ्ते महीनों में, मगर तुम फिर भी नहीं आये। मैं एकदम टूट चुकी थी। समझ नहीं आ रहा था तुम्हें कहाँ ढूँढू। मैंने कहाँ कहाँ नहीं खोजा, क्या क्या नहीं किया तुम्हारे लिए मगर सब बेकार रहा। मैं मारी मारी फिर रही थी। कभी लगता कि कहीं तुम्हें कुछ हो तो नहीं गया और फिर एक पल को लगता की तुम वापस आ गए हो। कभी लगता तुम मुझे अपनी बाहों में भरे मुझसे ढेर सारी बातें कर रहे हो। मैं तो जैसे ख़यालों में ही जीने लगी थी। माँ पापा मुझसे तुम्हें भूल जाने को कह रहे थे कि वो एक हसीं ख़्वाब था जो कभी पूरा नहीं होना था। उन्होंने मेरी शादी मुकर्रर कर दी थी। मैं तुम्हारे सिवाय किसी और से ब्याह नही करना चाहती थी मगर मुझे उनकी खुशी के लिए राजी होना पड़ा।
पंकज से मेरी शादी को तीन महीने बीत चुके थे। पंकज बहुत अच्छे थे। मेरा ख़ूब ख़याल रखते थे। धीरे धीरे मेरी जिंदगी पटरी पर लौट रही थी। मगर मैं अब भी तुमको भूली नहीं थी।मुझे जब कभी तुम्हारी याद आती तो यही सोचती कि जिंदगी ने भी मेरे साथ कैसा मज़ाक किया। एक अजनबी से अजीब सी मुलाकात हुई और जब उससे इतना लगाव हो गया कि उसकी आदत सी हो गयी थी तो फिर से हमें अजनबी कर दिया और ख़ूब रोती।
एक दिन मेरे घर की डोर बेल बजती है। मैं सब्जियाँ काट रही थी और पंकज अख़बार के पन्ने पलट रहे थे। मैं दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजा खोला। मेरी जो उम्मीद टूट कर लगभग चूर हो चुकी थी वो एकाएक मेरी आँखों के सामने हक़ीकत बन कर खड़ी थी। दरवाजे पर आकाश था। कुछ देर तक तो मैं सन्न खड़ी रही और बस आकाश को ही निहारती रही। पहले से काफी बदला बदला नज़र आ रहा था। चेहरे पर दाढ़ी बढ़ा रखी थी उसने। मैं उससे बहुत कुछ बोलने चाहती थी, काफी सवाल थे मेरे उससे मगर मेरी ज़बान लड़खड़ा रही थी। इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती आकाश ने अपने हाथ आगे की ओर किया जिसमें उसने दो बोतलें पकड़ रखी थी। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती आकाश ने बोतलें मेरे ऊपर मार दी। मेरी आँखें बंद हो गयीं। चारों तरफ अंधेरा छा गया। मैं बस चीखे ही जा रही थी। पूरा बदन जल रहा था मानो किसी ने आग लगा दी हो। पूरा चेहरा मानो फटने वाला हो। मुझसे दर्द सहा नहीं जा रहा था। मैं इधर उधर चिल्लाते हुए भाग रही थी।
चीखे जा रही थी। रोये जा रही थी। बचाने की गुहार लगा रही थी।कुछ देर में तड़पते कलपते मेरी आँखें बंद हो गयीं। जब अस्पताल में मेरी आँखें खुली तो मैं मौत से दो दो हाथ कर रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये मेरे साथ क्या हुआ और क्यों। अस्पताल में बीते ये चंद महीने मेरी जिंदगी के सबसे बुरे दिन थे। इसने मुझसे मेरी खुशी, मेरी मुस्कान, मेरे रिश्ते नातें, यार दोस्त, परिवार सब छीन लिया। पंकज ने भी मुझे बदसूरत - बदचलन बोलकर छोड़ दिया। मेरी जिंदगी बेरंग और बोझिल हो गयी थी जिसमें कोई रंग नहीं था... न रिश्ते नाते का, न प्यार का, न यारी दोस्ती का और ही इस अजनबी दुनिया के किसी अजनबी का।
आकाश तुमने मुझे कहा था न कि मुझे अपनी रोजमर्रा की बातें कहीं दर्ज़ करनी चाहिए, तब मैंने कहा था कि जब कोई वज़ह मिलेगी तो मैं जरूर उसे कहीं महफूज़ करूँगी। आज मुझे तुमने वो वज़ह दे दी है। आज सालों गुजर गए मुझे अपना जुर्म पहचानते पहचानते। तुमने मुझे जो सजा दी है वो तो मैं आज भी भुगत रही हूँ मगर मेरा गुनाह मैं आज तक नहीं ढूँढ पायी। आकाश मैं आज भी तुमसे मिलना चाहती हूँ। अपने गुनाहों के दस्तावेजों को देखना चाहती हूँ।
- एक अभागन सोनिया।
माया जो कि उन दिनों तेज़ाब पीड़िता सहयोग संस्थान की देखरेख और संचालन किया करती थी, सोनिया के दर्द में इस कदर समा गई थी कि बबलू के पुकारने की आवाज उसको सुनाई ही नहीं पड़ रही थी। उसकी आँखों से टपकता आँसू सोनिया के दर्द को जाहिर कर रहा था। आँसुओं की बूँदों से डायरी की पन्ने जो कभी गीले होने के बाद सूखने से कड़क हो गये थे, फिर से भीग चुके थे।
'दीदी आपसे कोई मिलने आया है ..... दीदी... दीदी... कोई मिलने आया है' बबलू का बार बार पुकारने पर माया को सुध आयी।
उसने आँसू पोछते हुए कहा- 'तुम उनको दफ़्तर में बिठाओ, मैं आती हूँ।
माया को सोनिया के इतने सालों के अजीब बर्ताव और घुटन की वजह साफ नज़र आ रही थी और.... वह सोनिया की डायरी उसके तकिये के नीचे रखकर आगे बढ़ गयी।
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