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By - अंकेश मद्देशिया
हिंदी भाषा के विकास में और हिन्दुस्तानी संगीत को समृद्ध करने में अमीर खुसरो ने जो योगदान दिया है वह अद्वितीय है।
खुसरो ने जनमानस को रुचिकर लगने वाली है अनेक तरह की नई विधाओं का अपने काव्य में प्रयोग करते हुए हिंदुस्तानी साहित्य को समृद्ध किया । पहेलियां ,कह मुकरियां ,निस्बते, सुखने, दो सुखने, अनमेलियां ,गीत ,कव्वाली और नुस्खे ऐसी विद्या है जो अमीर खुसरो के पहले लोक व्यवहार में तो थी परंतु उसका कोई साहित्यिक रूप नहीं था। अमीर खुसरो की जिंदगी का सफर हिंदुस्तानी तहजीब के बनने संवरने के इतिहास का पता देता है ।
अमीर खुसरो ने 12 साल की उम्र में शायरी करना शुरू कर दिया था । उनके आध्यात्मिक गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया थे । वे रोज बेनागा उनके दरबार में हाजिरी देते थे । उनका दिन जहां अपने जीवन यापन के लिए बादशाह के दरबार में गुजरता था तो वहीं उनकी शाम हजरत निजामुद्दीन के दरबार में गुजरती थी।
हजरत निजामुद्दीन का उनसे प्रेम इस कदर गहरा था कि वे कहते थे कि खुदा जब उन से पूछेगा कि निजामुद्दीन मेरे लिए क्या लाये हो ? तो मैं खुसरो को पेश कर दूंगा।
भारतीय परंपरा में से बसंत के गीतों को चुनकर दरगाहों तक ले जाने और दरगाहों में बसंत उत्सव मनाने और बसंत उत्सव में कव्वाली को शामिल करने का श्रेय भी अमीर खुसरो को ही जाता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के भानजे तकीउद्दीन का निधन हो जाने पर हजरत औलिया को भारी आघात लगा और वे इससे शोक में डूब गये। अमीर खुसरो ने उन्हें इस दुख से निकालने के लिए ढेरों यत्न किये परंतु सफल नहीं हुए। एक दिन अमीर खुसरो कालकाजी की तरफ से गुजर रहे थे तो उन्होंने कालकाजी मंदिर पर बसंत का मेला देखा। उसमें लोग कालकाजी मंदिर पर फूल चढ़ा रहे थे और मस्त हो कर गीत गा रहे थे।
अमीर खुसरो इस नजारे को देखकर इतना भाव-विभोर हुए कि उन्होंने तुरंत हिन्दी और फारसी के कुछ शेरों की रचना कर डाली। सरसों के फूल हाथों मे लिए और पगड़ी को टेढ़ा करके मस्तानी चाल में औलिया की सेवा में पहुंचे और सरसों के फूल उड़ाते हुए शेर पढ़ा ।
अश्क रेज़ आमदस्त अब्र बहार,
साकिया गल बरेज़ो - बादः बयार
अर्थात बहार के मेघ अश्रु बहाने आ रहे हैं। साकी फूल बरसाओ और मदिरापान कराओ। यह शेर सुनकर कई दिनों से शोक में डूबे ख्वाजा निजामुद्दीन मुस्कुराने लगे । इसके बाद हर साल कालकाजी के मेले पर वे सूफी कव्वालों को साथ लेकर जाते और मस्त होकर बसंत के गीत और कव्वालियां गातें। मुसलमान सूफी संतों पर भी बसंत का रंग चढने लगा और वहां भी बसंत मनाने का रिवाज चल निकला ।
अमीर खुसरो 27 सितंबर 1325 को दुनिया से विदा हो गये। दुनिया से उनकी विदाई भी अपने गुरू के के लिए शिष्य के प्रेम की अनूठी मिसाल बनकर रह गई । खुसरो गयासुद्दीन के साथ बंगाल लडाई के मोर्चे पर गये थे। खुसरो बंगाल से लौटते हुए तिरहुत में ठहर गये। निजामुद्दीन औलिया ने अपने प्रियतम शिष्य को याद किया और नसीरुद्दीन महमूद (चिराग दिल्ली) को अपना वारिस बनाकर दुनिया से चल बसे । अमीर खुसरो के दिल्ली लौटने पर उन्हें इस खबर से बड़ा सदमा लगा। उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले और मुंह पर कालिख पोत ली और कहा कि सूरज धरती के नीचे छुप जाए और खुसरो जिंदा रहें और खूब रोए और यह दोहा कहा ।
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केस,
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुंदेश।
वह अपनी सारी दौलत लुटा कर निजामुद्दीन औलिया की कब्र पर झाड़ू देने लगे और छह महीने बाद अपने गुरु की याद में तड़प तड़प कर उन्होंने भी अपने प्राण गवा दिये।
खुसरो नहीं रहे परंतु आज भी खुसरो हमारी भाषा हिंदी , उसमें लिखी गई उनकी पहेलियां , निस्बतो, ढकासलों, गजल ,कव्वाली और कभी भी खत्म न होने वाली हिंदुस्तानी संगीत की शकल में हमारी संस्कृति के मजबूत और अटूट स्तंभ के रूप में हमारे जीवन का हिस्सा है।
(भारतीय संस्कृति का इतिहास,
दास्तान-ए-खुसरो, लेखक- महेश राठी)
'समरथ' के जुलाई-सितम्बर और अक्टूबर-दिसम्बर 2017 के अंक से।
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