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अमृतलाल नागर, ‘ग़दर के फूल’ और 1857 का विद्रोह
ग़दर के फूल हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर की कालजयी कृति है। 1857 के विद्रोह के बारे में उत्तर प्रदेश के गाँवों और शहरों में घूमकर लगनपूर्वक जुटाई गई जानकारियों, विवरणों पर आधारित एक मुकम्मल किताब। सत्तावनी क्रांति से जुड़ी लोक-स्मृतियों पर आधारित किताब लिखने की जरूरत अमृतलाल नागर को क्यों महसूस हुई। इसका विवरण ख़ुद उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार है :
“सत्तावनी क्रांति के संबंध में भारतीय दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास के अभाव में जनश्रुतियों के सहारे ही इतिहास की गैल पहचानी जा सकती है। हमारे देश में स्वजनों की चिता के फूल चुने जाते हैं। सौ वर्ष बाद ही सही, मैं भी ग़दर के फूल चुनने की निष्ठा लेकर अवध की यात्रा का आयोजन करने लगा।”
यह पुस्तक जुलाई-सितंबर 1957 के दौरान दो महीने के भीतर लिखी गई। इसके लिए सामग्री जुटाने हेतु अमृतलाल नागर ने मई 1957 में बाराबंकी, दरियाबाद, भयारा, जहांगीराबाद, कुर्सी, भिठौली, फैज़ाबाद, सुल्तानपुर, गोंडा, बहराइच, बौंडी, इकौना, रेहुआ, ढौंढे गाँव नेपालगंज, दुबिधापुर, सीतापुर, मितौली, मनवां का कोट, खैराबाद, नैमिषारण्य, रायबरेली, डलमऊ, भीरा गोविंदपुर, शंकरपुर, परशुरामपुर ठिकहाई, हरचंदपुर कठवारा, सेमरी व गढ़ी बैहार, हरदोई, उन्नाव व लखनऊ की यात्राएँ की।
इन स्थानों पर वे लोगों से मिले और विद्रोह से जुड़ी स्मृतियों, गीतों, किंवदंतियों को इकट्ठा किया। किताब लिखते हुए अपने द्वारा जमा की गई जानकारियों को उन्होंने इतिहास की किताबों, गजेटियर आदि से भी मिलाने की कोशिश की है।
ग़दर संबंधी विवरणों को एकत्र कर उन्हें एक किताब में दर्ज करने के क्रम में अमृतलाल नागर ने ख़ुद को ‘ग़दर का लिखिया’ कहा है। वे ग़दर के नायकों से जुड़ी स्मृतियों की तलाश में जरूर हैं, पर वे गढ़े गए नकली नायकों और ग़दर के सच्चे नायकों में फर्क भी करते हैं।
साथ ही, उनका उद्देश्य सिर्फ राजे-रजवाड़ों की विद्रोह में भागीदारी और उनकी वीरता का बयान करना ही नहीं बल्कि ‘जनसाधारण के उन शहीदों को भी पहचानना है’, जो हमारी श्रद्धांजलि के सच्चे अधिकारी हैं। स्मृतियों को सहेजते हुए भी वे कोरी भावुकता और अतीत के प्रति किसी किस्म की नॉस्टेल्जिया से बचने का भी प्रयास करते हैं। बीते हुए समय की बात करते हुए उस काल के वैभव से आत्म-विभोर हो जाने वाले लोगों में वे निश्चय ही नहीं हैं।
नागरजी हमारा परिचय चहलारी के बलभद्र सिंह, गोंडा के देवी बख्श सिंह, रायबरेली के बेनीमाधव सिंह, अमेठी के लालमाधव सिंह, रोइया के नरपति सिंह, संडीला के चौधरी हशमत अली, बेरुवा के गुलाब सिंह, राव रामबख्श सिंह, बौंडी के हरदत्त सिंह, रामनगर के गुरु बख्श सिंह, अयोध्या के बाबा रामचरन दास और शंभू प्रसाद शुक्ल, अमीर अली, अच्छन खाँ, बुझावन पांडे, मोहम्मद हुसैन नाज़िम, खान बहादुर खान, मम्मू खाँ, बाला साहब, ज्वाला प्रसाद, बहराइच के काजिम हुसैन खाँ, भटवामऊ के तजम्मुल हुसैन खाँ, महोना के दिग्विजय सिंह, चरदा के जोतसिंह चौधरी, मुसाहब अली, अनंदी कुरमी से कराते हैं। इसी संदर्भ में, वे कृष्णशंकर शुक्ल ‘कृष्ण’ द्वारा रचित 'बेनीमाधव बावनी' और ठाकुर ननकऊ सिंह द्वारा रचित 'जंगनामा' से हमारा परिचय कराते हैं।
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