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क्रेडिट - देशबंधु |
अगर देश की राजनीति सही दिशा में सही तरीके से काम न करे तो निश्चित रूप से देश आगे नहीं बढ़ पाएगा और वर्तमान स्थिति से भी नीचे गिरता जाएगा, और यहाँ तो आगे बढ़ने, प्लानिंग करने, नई योजनाएं लाने की बात कौन करे? इन बातों से तो दूर-दूर तक वास्ता नहीं दिखता। भारत की राजनीति वर्तमान समय में कुछ चुनिंदा चीज़ों के इर्द-गिर्द घूम रही है, जिनका देश के और वहां के लोगों के विकास, उनके जीवन स्तर में सुधार, शिक्षा और विकास और मानवीय विकास से कोसों दूर दिखाई पड़ती है।
चुनाव होता है पार्टियां जैसे ही जीतती हैं वैसे ही अपने द्वारा हथियाए नामों को राज्य पर थोपना शुरू कर देती हैं। फलां की मूर्ति तोड़कर फलां की लगा दी, किसी सड़क का नाम बदलकर अपने पसंद के विचारक/नेता के नाम पर रख दिया। भवनों के रंग बदल दिए और योजनाओं, विश्वविद्यालयों के नाम बदल दिए और जब इतने से तसल्ली नहीं हुई तो किताबों के कोर्स बदल दिए। पूरा का पूरा इतिहास ही पलट दिया। ऐसे राजनेता समय को भी झूठा साबित करने का सहस रखते हैं, जो हो चुका है उसको नकार देते है और नया इतिहास लिखते हैं।
यह सिलसिला हर चुनाव के साथ चलता रहता है। सभी पार्टियों के अपने पसंदीदा विचारक विद्वान हैं। जो पार्टी सत्ता में आएगी वो अपने विचारक के नाम पर खेल खेलेगी। और इस खेल में जनता भी पीछे नहीं है, उसे भी इसमें कोई आपत्ति नहीं है। उसे वृद्धि-विकास की बातों से कम, इन बातों से ज़्यादा फर्क पड़ता है जिससे राजनीति का रास्ता और भी आसान हो जाता है।
एक तो चुनावों का सिलसिला ही नहीं रुकता, एक चुनाव को हुए साल भर नहीं बीतता कि दूसरा चुनाव आ जाता है। पार्टियां एक चुनाव लड़ती हैं और जीतने या हारने के बाद अगले चुनाव की तैयारियों में लग जाती हैं और इन सब में इतना वक्त भी नहीं बचता कि जो चुनावी वादे हैं वो पूरे किए जाएं या देश के सुधार के लिए कुछ करना संभव हो। कैसे संभव होगा? अगर इनसब में वक्त बिताया तो अगले चुनाव की तैयारी कैसे होगी ?
अभी तीन राज्यों में चुनाव हुए, अब अगले साल लोकसभा का चुनाव है और उसके प्रचार-प्रसार की सरगर्मियां बढ़ने लगी हैं। देश के नेता उसी में मशगूल हो जाएंगे, आप चीखते चिल्लाते रहिए और पूछते रहिए की पिछली दफा आपने क्या कहा था और क्या किया। जवाब मिलेगा की आगामी चुनाव में समर्थन करिए हमें और मज़बूती से बहुमत में लाइए सब ठीक कर देंगे। अब न चुनाव रुकेंगे और चुनाव तो पर्व है वोट भी देंगे तो कोई न कोई जीतेगा ही। सिलसिला चलता रहता है।
इन सब विषयों पर देश के लोगों को भी सोचना होगा अपने विवेक से की चुनावी और बातों जुमलों के वाग्जाल में ही फंसकर रहा जाना है या कुछ सही करने के लिए नेताओं को पूछना और धिक्कारना भी है ? और अगर हमें सिर्फ एक मूर्ती गिराकर दूसरी लगाने, सड़क का नाम, विश्वविद्यालय का नाम, स्टेशन का नाम बदल देने में ही तसल्ली हो रही है तो लोकतंत्र मुबारक हो सबको।
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