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बारह साल पहले की मई की दुपहरिया..मुज़फ्फरपुर के संजय सिनेमाघर से नून शो देखने का साप्ताहिक कार्यक्रम निपटा कर संजय गली के उस अति शानदार टैरेस वाले कमरे में पान चबाते और पंखे की गरम हवा फांकते हुए जबलपुर से मेरा 1857 वाला लेख लिए आई पहल पत्रिका को खोलते ही जैसे ठंडी बयार बहने लगी..अपना छपा भूल नर्मदा के किनारे ऐसा पसरा कि फोन की डिंगडोंग से ही आंखें उस लेख पर से हटीं, जो किन्हीं अमृतलाल वेगड़ नामधारी का लिखा हुआ था...
तुरंत जबलपुर फोन लगाया पहल के संपादक ज्ञानरंजन को..फोन पर सबसे पहले बोल उनके ये थे कि हमने तुम्हारे लेख की हेडिंग भी वही रखी, जो तुमने लिखी थी..
-सर जी, ये अमृतलाल वेगड़ कहाँ रहते हैं..अपन उनके सवाल को परे कर पूछ रहे थे!!
-जबलपुर में ही रहते हैं..क्यों..
-उनका नर्मदा पे पढ़ के पगला गया हूँ..
-तुम तो हो ही पागल..तो नई बात क्या है..
बात खत्म हुई..तब तक दफ़्तर जाने का समय करीब..चाय बना और पी कर भागा.. ऑफिस में घुसते ही कप्यूटर खोला और जबलपुर-नर्मदा का जुग्राफ़िया और इतिहास टटोलने में जुट गया...
बस ये मानिए कि अब सोते जागते सिर्फ नर्मदा ही थी अपने सामने..और चमत्कार देखिये कि अगले साल चार जुलाई को मैं जबलपुर में था..एक के बाद एक तीन लेख पहल में छपने के बाद अपना शेयर उछाले मार रहा था..और अब तो दुनिया ही नई हो गई थी संपादक बनने के बाद..
भंवरताल वाले गेस्टहाउस में सामान रखते ही ज्ञान जी को फोन लगाया तो उनका फोन बात ही नहीं रहा था..ऑफिस में गुलदस्ता ग्रहण करते ही मार्केटिंग के अमित दास की बाइक पे सवार हो कर सबसे पहले भागा ग्वारीघाट...वहां नर्मदा से मेलमिलाप के बाद वेगड़ जी से मिलना ज़ोर मारने लगा...लेकिन उनसे मिलने को कुछ दिन ठहरना पड़ा..जुलाई ख़त्म होते होते संदीप चंसोरिया के साथ वेगड़ जी के घर में घुस कर मिठाई की प्लेट साफ कर रहा था...
उस दिन से मैं यही मान कर चल रहा हूँ कि वेगड़ जी सौ साल तो पार करेंगे ही....मुझ में और चे ग्वेरा में..मुझ में और नब्बे साल के वेगड़ जी में खास साम्य यह है कि उन दोनों को और मुझे दमा रोग है..चे तो 51 साल पहले चले गए..अब हम दो बचे हैं..चे ने नर्मदा को नहीं देखा, लेकिन वेगड़ जी ने मुझे एकाध दिन नहीं, बल्कि पूरे दस दिन सुबह से ले कर शाम तक नर्मदा के किनारे चलवाया..20-25 किलोमीटर रोज..
तीस जनों के कारवाँ में कई बार वेगड़ जी मुझसे संगीत पे चर्चा करते और चलते चलते गाना सुनाने को कहते तो सारी थकावट भूल मैं सुर लगाने में जुट जाता..नौ साल पहले की उस यात्रा में कई बार नर्मदा किनारे धूनी रमाने को दिल ने उछाल मारी, लेकिन वेगड़ जी हर बार मुझे संसार में ले आते..
और अब जबलपुर जाने की चाहत नर्मदा और ज्ञान जी के अलावा मेरे कई मित्र, खासकर विनय अम्बर, सुप्रिया और उनका बेटा बिगुल हैं..तो एक मक़सद वेगड़ जी का घर भी है..वहां मां भी हैं, नीरज भी हैं और नर्मदा की सी ताज़गी भी है.
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