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वेबदुनिया |
लो , और तेज हो गया
उनका रोज़गार
जो कहते आ रहे हैं
पैसे लेकर उतार देंगे पार।
तुम्हारी घनी भौहों के बीच की
वह गहरी लकीर
अभी भी गड़ी है वहाँ बल्ली-सी
जहाँ अथाह है जल
और तेज है धार।
मैं साधारण…
(इसी शब्द से तो था
तुम्हें इतना प्यार)
कहता हूँ : ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और।
बर्फ में पड़ी गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर
वह गरमाता रहा,
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
ख़त्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और।
खाली पेट पर
जो रखकर चिराग़
तैराते जा रहे हैं
अपने ऐश्वर्य के सरोवर में ,
बुझती आँखों के जो
बनाकर बन्दनवार
सजाते जा रहे हैं
संसद और विधान सभाओं के द्वार
उनको गया है वह समूल झकझोर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और।
अब वह नहीं है ‘गया’
यही शब्द देगा
फिर अर्थ नया।
तीन आने भी जब नहीं बचेंगे जेब में
आँख पूरी खुलेगी जब
फँसे हुए झूठ में , फरेब में
उन्हीं घनी भौंहों की तब गहरी लकीर
करकेगी जैसे आधा चुभा तीर।
ओ मेरे देशवासियों
छूट न जाये कहीं क्रान्ति की डोर
एक चिनगारी और।
हाँ , वह गहरी लकीर
खेतों में हल के पीछे-पीछे चली गयी है,
झोपड़ियों को थामे है शहतीर-सी
हर मोड़ पर मिलेगी इंगित करती ,
मजबूत रस्से की तरह ऊँचाइयों पर चढ़ाती
गहराइयों में उतारती।
मैं साधारण …
वैसी नहीं दीखती है
मुझे कहीं और
ओ मेरे देशवासियों
उसके नाम पर
एक चिनगारी और।
उसने थूका था इस
सड़ी – गली व्यवस्था पर
उलटकर दिखा दिया था
कालीनों के नीचे छिपा टूटा हुआ फ़र्श ,
पहचानता था वह उन्हें
जो रँगे-चुने कूड़े के कनस्तरों से
सभा के बीच खड़े रहते थे।
उसके पास थी एक भाषा
प्यार और सम्मान से जीने के लिए
जिसे वह मन्त्र नहीं बनाता था।
जहाँ सब सिर झुकाते थे
वहाँ भी उसका सिर ऊँचा उठा रहता था,
जिधर राह नहीं होती थी
उधर ही वह पैर बढ़ाता था
फिर बन जाती थी एक पगडण्डी
एक राजमार्ग जिन पर दूसरों के
नामों की तख्तियाँ लग जाती थीं।
निहत्था अकेला वह गुजर गया
‘चौआलीस करोड़’ लोगों के
दिल में से नहीं एक जलती सलाख-सी
दिमाग़ से।
अपनी खाली जेबों में
पाओगे पड़ा हुआ तुम उसका नाम
इतिहास करे चाहे न करे अपना काम।
सन्तों की दूकानों के आगे
खड़ी रहेगी उसकी मचान
भेड़ों के वेश में निकलते कमीने तेंदुओं पर
तनी रहेगी उसकी दृष्टि।
ओ मेरे देशवासियों
बनना हो जिसे बने नये युग का सिरमौर…
अभी तो उसके नाम पर
एक चिनगारी और।
एक चिनगारी और –
जो ख़ाक कर दे
दुर्नीत को , ढोंगी व्य्वस्था को ,
कायर गति को
मूढ़ मति को ,
जो मिटा दे दैन्य ,शोक , व्याधि,
ओ मेरे देशवासियों
यही है उसकी समाधि।
मैं साधारण …..
मुझे नहीं दीखती कोई राह और
जिधर वह गया है
उधर उसके नाम पर
एक चिनगारी और।
– सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
शहीदे आज़म भगत सिंह ,राजगुरु , सुखदेव को इसी तारीख को फाँसी दिए जाने के बाद लोहिया अपने उन दोस्तों से तारीख आगे – पीछे करने का आग्रह करते थे जो उन्हें जन्मदिन पर निमन्त्रण देते थे।
साभार - kashivishvidyalay.wordpress.com
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