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छायाकार - अमित मंडलोई |
घर से कुछ दूर तिराहे पर अचानक एक ओर निगाह उठी तो कुछ क्षण के लिए ठिठक गया। खाली पड़े प्लॉट के कोने पर एक पीपल जैसे तालियां बजाकर खिलखिला रहा था। उसके ठहाकों में ऐसा जादू था कि मुझे गाड़ी किनारे लगाकर रुकना ही पड़ा। कुछ क्षण उसे देखता ही रह गया। दोपहर की शुरुआत में माथे से पसीने की धार निकलने लगी थी और ये जनाब उन गर्म हवाओं में भी झूमकर नाच रहे थे।
पूरे बदन को धानी रंग की मखमली पत्तियों से ढंक रखा था। पत्तियां क्या शरारतों से भरी बच्चियां ज्यादा लग रही थीं। जिन्हें हर घड़ी बस उछलकूद के लिए बहानों का इंतजार हो। हवा का जरा सा झोंका आया नहीं कि ये उछल पड़तीं और देर तक उधम मचाती रहतीं। आसपास के पेड़ जरा से में हांफ कर थक जाते, थम जाते, लेकिन इनकी ऊर्जा में जरा कमी नहीं आती।
वैसे भी पास के पेड़ों पर मौसमी बुढ़ापा छाया है। अधिकतर पत्तियां सूख चुकी हैं और गिरने पर आमादा हैं, लेकिन पीपल पर तो बचपना तारी है। मानो सबको उलाहने दे रहे हों कि अगर वक्त से पहले बदलाव के लिए खुद को तैयार नहीं करोगे तो यही हाल होने हैं। गर्मी हर बार ऐसे ही आती है, तुम हर बार ऐसे ही उससे मिलते हो। कभी मेरी तरह मिलकर देखो गर्मी भी अपना अंदाज बदलने को मजबूर हो जाएगी।
मुझसे रहा न गया, मैं उसकी छांह में जाकर खड़ा हो गया। ऐसा लगा जैसे उसने सिर पर हाथ रख दिया हो। बड़ी ठंडक थी, उस छांह में, अलबत्ता उसने रोशनी पर अपना हक नहीं जताया था। नुकीली-पैनी पत्तियां भाले लेकर सूरज की किरणों को घेरकर खड़ी नहीं हो गईं। उनके साथ एक लय में आ गईं, जिससे पत्तियों का रंग और चटक कर ताम्बाई हो उठा, खिल गया, दमकने लगा। पत्तों से छनकर सूरज की किरणें वैसे ही मुझ तक पहुंच रही थी, लेकिन उनका तीखापन पत्तियों की कोमलता की संगत में मृदु हो गया। मैं जितनी देर उसकी छांह में खड़ा रहा, वह प्रेम से मेरे बाल सहलाता रहा।
आधी रात के बाद लौटते समय वह वैसे ही मुस्करा रहा था। पत्तियां दिनभर धमाचौकड़ी मचाकर थोड़ी थकी जरूर नजर आई, लेकिन जैसे छोटे बच्चे पूरी रात बिस्तर पर लोट लगाते हैं, वे भी हवा के झोंकों के साथ वैसे ही लटपट हो रही थीं। चारों तरफ एकदम शांति थी, लेकिन पीपल के आगोश में जैसे कोई संगीत निकल रहा था, स्नेह की बांसुरी बज रही थी। तभी मुझे महाभारत का प्रसंग याद आया, जिसमें कृष्ण ने कहा कि सभी वृक्षों में मैं पीपल हूं। इतनी चंचल पत्तियों के नीचे गौतम की मौजूदगी का अहसास हुआ, जो इसी छांह में बुद्धत्व को प्राप्त हुए।
मैं सोच में पड़ गया कि ये कैसा विरोधाभास है। जो पेड़ एक क्षण रुकने को तैयार नहीं है, थमना-ठहरना, जिसने कभी सीखा ही नहीं, उसी की छांह के नीचे कैसे ध्यान का अलख जगता है। सारी गतियां विराम को पा जाती हैं। कोई मन की चंचलता से पूर्ण रूप से मुक्ति पा जाता है, वैराग्य के शीर्ष को छू लेता है, आत्म दीप प्रदीप्त हो जाता है, बुद्ध हो जाता है।
नीचे कुछ पुराने मिट्टी के दीपक रखे थे, पूजन के लिए लपेटे गए सौभाग्य के सूत के अंश भी नजर आ रहे थे। मैं पूछना चाहता था, देव वृक्ष ये मन्नतों का बोझ तुम्हारी चंचलता को कम तो नहीं कर रहा। क्या है ऐसा, जो तुम सबकी फिक्र ओढक़र भी अपने आनंद में मग्न में हो। कहीं इसी गुण ने तो तुम्हे सभी का प्रिय नहीं बना रखा है। वह कुछ नहीं बोला, बस हंसा और मेरी तरफ कुछ पुरवाई छोड़ दी। उनका स्पर्श संगीत की तरह अब भी मेरे रोम-रोम में प्रकम्पित है।
पीपल सारी गतियों की दिशा परिवर्तन का ही नाम है। मौसम की धूप-छांह से विरत हो अपने ही आनंद में डूबे रहने का नाम है। अब जब भी उसके पास से गुजरता हूं वह मुट्ठियों में भरकर मुझ पर मुस्कुराहटें फेंकता है।
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