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By - राहुल कोटियाल
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The dark night |
इंदिरा गांधी के ज़माने में इन्हें तीन वरिष्ठ जजों को नज़रंदाज करते हुए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया बनाया गया था. वो भी केशवानंद भारती मामले में फ़ैसला आने के ठीक अगले ही दिन. इसके चलते सुप्रीम कोर्ट के तीनों सबसे वरिष्ठ जजों ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. लेकिन इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, मोटी खाल वाले थे.
चीफ़ जस्टिस बनने के बाद जस्टिस रे तत्कालीन सत्ता के आगे इस क़दर बिछ गए थे कि फ़ैसला सुनाने से पहले भी इंदिरा गांधी की राय पूछते थे. बताते हैं कि इंदिरा गांधी के सेक्रेटेरी से जस्टिस रे आए दिन ‘मैडम की इच्छा’ जानने के लिए फ़ोन करते थे. लिहाज़ा सत्ता के गलियारों में तब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों की चर्चा, उन फ़ैसलों के आने से भी पहले ही शुरू हो जाती थी.
एक मौक़ा तो ऐसा भी आया जब जस्टिस रे ने चाटुकारिता की सारी हदें लांघ दी. ये आपातकाल से ठीक पहले का समय था. इलाहबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी थी. इसी दौरान जस्टिस रे ने एक 13 जजों की पीठ बना डाली ताकि केशवानंद भारती मामले के ऐतिहासिक फ़ैसले को पलटा जा सके. जबकि इसके लिए कोई पुनर्विचार याचिका तक सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल नहीं हुई थी.
चारों तरफ़ थू-थू हुई और न्यायपालिका का बड़ा हिस्सा मज़बूती से इसके विरोध में खड़ा हो गया तो मजबूरन जस्टिस रे को इस पीठ को रद्द करना पड़ा. लेकिन अगर केशवानंद भारती का फ़ैसला पलट दिया जाता तो सोचिए आज स्थितियाँ कैसी होती?
आपातकाल के दौरान जिस तरह से ‘कॉन्स्टिटूशन ऑफ़ इंडिया’ को बदलकर ‘कॉन्स्टिटूशन ऑफ़ इंदिरा’ बना दिया गया था, वह कभी नहीं सुधारा जा सकता था.
देश के चीफ़ जस्टिस का सत्ता के आगे नतमस्तक होना कितना घातक हो सकता है, जस्टिस रे का कार्यकाल इसका उदाहरण है. आज जस्टिस रे की याद इसलिए आइ क्योंकि हमारे मिश्रा जी जस्टिस रे से भी दो क़दम आगे निकल जाने को आतुर हैं...
इंदिरा के दीवानों को जस्टिस रे बहुत पसंद थे. बिलकुल ऐसे ही जैसे मोदी के दीवानों को मिश्रा जी बहुत पसंद हैं. लेकिन याद रखिए, इतिहास मिश्रा जी को भी वैसे ही याद करेगा जैसे आज जस्टिस रे को याद किया जाता है.
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