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सितंबर 1937 की बात है। राहुल जी दोबारा रूस जाने की तैयारी कर रहे थे और उसी सिलसिले में इलाहाबाद पहुंचे थे। वहां 6 सितंबर को विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने उनका भाषण रखा गया विषय था ‘हमारी कमजोरियां’। सभापति थे पंडित जवाहरलाल नेहरु।
राहुल जी अपने सामान्य बोल बरताव में अत्यंत सौम्य और सहृदय थे। परंतु पुस्तकों, लेखों और भाषणों में वे अपने विचारों को अत्यंत प्रखर भाषा में व्यक्त किया करते थे।
विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने अपने भाषण में राहुल जी ने उन लोगों की खूब खबर ली जो सारा ज्ञान विज्ञान पुरानी पोथियों में खोजा करते हैं । बोले- “ज्यादातर पुरानी पोथियोंं में 75% तो बेवकूफियां ही बेवकूफियां भरी पडी है। हां , कहीं कहीं अक़ल की बातें भी हैं।”
राहुल जी का भाषण समाप्त होने पर सभापति की हैसियत से नेहरु जी ने बोलना शुरु किया आज मैं दो बातें सोच रहा हूं । पहली राहुल जी की तरह के चिंतक हमारे विश्वविद्यालयों में क्यों नहीं पैदा होते ? दूसरी यदि मेरे जैसा आदमी यह सब कहता तो आप कहते कि तुम क्या जानते हो पुरानी किताबों की बातें मगर आज तो ऐसा आदमी यह सब कह रहा है जो पुरानी किताबों में ही तैरता रहता है।
राहुल जी के प्रखर भाषण से निश्चय ही कुछ छात्र तिलमिला गए होंगे। नेहरू जी के भाषण ने आग में घी डालने का काम किया। एक विद्यार्थी बोल ही पडा, तैरते ही रहे हैं ,पार नहीं पाया है।
पंडित जी अपनी प्रत्युत्पन्नमति के लिए प्रसिद्ध रहे हैं तपाक से जवाब दिया , “हां जो लोग कुंओं में तैरते हैं मेंढकों की तरह इस पार से उस पार भी चले जाते हैं । मगर जो सागर में तैरते ही रहते हैं, वह आर पार नहीं जाते ।”
सचमुच राहुल जी तैरते ही रहे ज्ञान सागर में। ठहराव उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था।
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