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By - राजीव मित्तल
मैं और मेरी बहन दिन में दो बार एक दूसरे को फोन करते हैं....कभी कभी तीन बार भी..तीसरा फोन माँ की कोई बात याद आ जाये तो...कल रात तो काफी देर बात करते रहे...पांच साल से करीब करीब रोजाना हम दोनों उस उपन्यास का पात्र बन जाते हैं...
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फ़ोटो - गूगल |
मैं और मेरी बहन दिन में दो बार एक दूसरे को फोन करते हैं....कभी कभी तीन बार भी..तीसरा फोन माँ की कोई बात याद आ जाये तो...कल रात तो काफी देर बात करते रहे...पांच साल से करीब करीब रोजाना हम दोनों उस उपन्यास का पात्र बन जाते हैं...
पचास साल पहले निर्मल वर्मा ने चेक उपन्यासकार इरडी फ्रीश के उपन्यास का अनुवाद ..बाहर और परे..के नाम से किया था..एक अंतराष्ट्रीय स्तर के शतरंज के खिलाड़ी को केंद्र में रख कर लिखे गए इस उपन्यास में मां पर कई पृष्ठ हैं,बल्कि कहूँ तो उपन्यास की धुरी ही मां है..
राजधानी में रह रहे उस खिलाड़ी को मां के मरने की खबर मिलती है तो ध्वस्त ज़िन्दगी जी रहा वो खिलाड़ी ट्रेन से रवाना होता है..चलते समय उसके साथ अब केवल रातें गुजार रही पुराने दिनों की उसकी प्रेमिका उसे मां के लिए गुलाब के फूलों का गुलदस्ता देती है..वो रास्ते भर परेशान रहता है कि उस गुलदस्ते पीछा कैसे छुड़ाए क्योंकि वो उसे मां से अलग रखना चाहता है..
बहरहाल वो मां के शहर पहुंचता है..फिर वो, उसका छोटा भाई और बहन तीनों मां के घर जा कर कॉफिन में रखे माँ के शव पास जा के कर बैठेते हैं और फिर काफी सारा समय माँ को सामने ला कर गुजारते हैं..
तब उनके पास वो बिल्लियां भी होती हैं जो मां को बहुत प्यारी थीं..वो कॉफी भी थी जो मां के समय रसोई में सुगंध बन छाई रहती थी..
तीनों भाई बहन मां को क़ब्र के हवाले करने से पहले तीन कप कॉफी के प्याले साथ लिए डाइनिंग टेबल पर बैठ कर मां को एक बार फिर याद करते हैं..
शतरंज का खिलाड़ी अगले दिन स्टेशन जा रहा है चेक राजधानी के लिए ट्रेन पकड़ने को..जहां अब वो ग्रैंड मास्टर की हैसियत खो कर शतरंज की एक पत्रिका का सम्पादक है.
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