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By - प्रद्युमन
यह हुआ था 1798 में जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित बनारस के संस्कृत कालेज में , वेद अध्यापन के नाम पर पंडित काशीनाथ तरकालंकार द्वारा।
बनारस के रेजिडेंट जोनाथन डंकन ने लार्ड कार्नवालिस से अपील की थी कि बनारस में वेदों के अध्ययन के लिए एक संस्कृत कालेज खोला जाए जिसमें पुरातन वैदिक शिक्षा दी जा सके और संस्कृत का संरक्षण किया जा सके। डंकन उन अंग्रेजो में से थे जो पुरातन भारतीय शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे। कार्नवालिस ने डंकन की बात मान ली और 1791 में बनारस में एक संस्कृत पाठशाला की स्थापना हुई।
8 साल तक इस पाठशाला में सब ठीक चलता रहा। लेकिन उसके बाद 1798 में पंडित काशीनाथ के प्रधानाध्यापक बनने के बाद स्थिति बिगड़ गयी। पंडित काशीनाथ ने संस्कृत के नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति और शिक्षकों का वेतन खुद लेना आरम्भ कर दिया। इसमें उनका साथ उनके कुछ सहयोगी शिक्षकों ने भी दिया। पंडित काशीनाथ ने शिक्षकों और छात्रवृत्ति पाने वाले विद्यार्थियों के कई फर्जी नाम लिखे और उनके नाम पर मिलने वाली छात्रवृत्ति और वेतन कुछ शिक्षकों के साथ मिलकर खुद ही हड़प लिया।
इस प्रकरण की जांच हुई तो प्राचार्य पंडित काशीनाथ और उनके सहयोगी शिक्षक दोषी पाए गए। सज़ा के तौर पर उन्हें पाठशाला से निकाल दिया गया और वेद अध्यापन का कार्य बंद हो गया।
इस घोटाले के बाद वहां अंग्रेज प्रधानाध्यापक की नियुक्ति हुई।
इस घटना का जिक्र शास्त्री कोशलेन्द्रदास ने आज जनसत्ता के एक लेख में किया है। उनका इसे लिखने का नज़रिया भले ही अलग हो लेकिन उन्होंने जाने अनजाने हमें आधुनिक भारत के पहले शिक्षा घोटाले से परिचित करवा दिया। उन्हें धन्यवाद। ऐसे ही लिखते रहें। हमें भी अपने काम की जानकारियां मिलती रहेंगीं।
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