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By - राजीव मित्तल
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फ़ोटो - गूगल |
अपनी सोच में महात्मा गांधी और भगत सिंह उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव ही कहे जाएंगे. लेकिन जवाहरलाल नेहरु को लेकर दोनों में अद्भुत सामंजस्य पाया जाता है.
भारतीय राजनीति में कदम धरने और अपनी पैठ जमाने के कुछ ही समय बाद ही गांधी को नेहरु और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवाओं का साथ मिला और उन्हें दोनों का यह साथ करीब दस साल का मिला जबकि नेहरु का 1948 के जनवरी माह तक.
इधर भगत सिंह को भी इन दोनों युवाओं को समझने परखने के लिए पांच-सात साल से ज़्यादा क्या मिले होंगे लेकिन इस क्रांतिकारी ने उतने समय में ही दोनों के रसायन को भलीभांति परख लिया था.
भगतसिंह ने सुभाष में पुरातन से जुड़ाव पाया तो नेहरु में अत्याधुनिक बौद्धिक सरसता पायी. सुभाष में एक आग्रह था. बंगाल का रूमानी नज़रिया था. मरने-मिटने का माद्दा था. वेद और पुराण सुभाष के लिए बहुत मायने रखते थे लेकिन भगत सिंह मानते थे कि पिछले हज़ार साल में जो कुछ हुआ, उसके चलते भारतीय युवाओं को पुरातन का गौरव किसी दिशा में नहीं ले जाएगा, भारतीय युवा मानस को ज़रूरत है बौद्धिक खुराक की, जो नेहरु का व्यापक दृष्टिकोण ही दे सकता है. देश के युवाओं को कैसा नेतृत्व मिलना चाहिए. भगत सिंह को वो संतुलित नज़र नेहरु में ही दिखी. युवाओं को उकसाने वाला नहीं, उनका बौद्धिक विकास करने वाला नेता नेहरु को ही मानते थे भगतसिंह.
संघ परिवार का आईटी सेल नेहरु को लेकर चाहे जितनी गंदगी बिखेर दे लेकिन गांधी और भगत सिंह नेहरु के महत्व को बखूबी समझते थे.
यहां मुंशी प्रेमचंद की एक बात बताना चाहूंगा कि बनारसीदास चतुर्वेदी उन्हें लगातार कोलकाता आने का आमंत्रण भेज रहे थे ताकि प्रेमचंद की रवींद्रनाथ ठाकुर और शरतचंद से एक मीटिंग तो हो ही जाए पर प्रेमचंद टालते रहे क्योंकि अपने को खुरदरा, रूखा-सूखा किसान मानने वाले प्रेमचंद बंगाल की रुमानियत के कायल कतई नहीं थे.
सुभाषचंद्र बोस का अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी जाना और वहां हिटलर से अंग्रेजों के ख़िलाफ़ मदद मांगना एक तरह से सुभाष जैसे ऊंचे कद के नेता के किये हाराकिरी ही कहा जाएगा. सुभाष के इस कदम में रणनीति कम रुमानियत ज़्यादा दिखती है जो हिटलर जैसे अपने समय के सबसे घृणित इंसान से जुड़ने को प्रेरित करती है.
सुभाष की इसी रुमानियत पर भगत सिंह ने नेहरु की बौद्धिक तार्किकता को ऊपर रखा. आज क्या भगतसिंह का कहा सच नहीं हो रहा कि पता नहीं किस और कौन से आर्यवर्त का गुणगान भांडों के अंदाज़ में किया जा रहा है और नेहरु की वैज्ञानिक सोच का निहायत घटिया अंदाज़ में मज़ाक उड़ाया जा रहा है.
भारत एक खोज लिखते समय नेहरु कहीं भी पुरातन गौरव की जड़ता में नहीं फंसे. उन्हें जेल काटने का सदुपयोग करना था, और अपनी बेटी का ज्ञानवर्धन करना था, जो उन्होंने किया. यहां तक गांधी जैसा सनातनी हिन्दू भी कहीं न कहीं नेहरु की बौद्धिक क्षमता का कायल था. जो खुद रामराज्य का गुणगान करता था, सुबह-शाम भगवान की प्रार्थना करता था लेकिन नेहरु के अधार्मिकपन (नास्तिक कतई नहीं) का कायल था.
गांधी ने एक से एक ऊर्जावान, देशभक्त, निडर और बुद्धिमान नेताओं को अपने से जोड़ा था, लेकिन वे नेहरु के त्याग और क्षमता और वैज्ञानिक सोच को लेकर शुरू से चमत्कृत रहे.
उस समय के सभी नेताओं में नेहरु ही थे, जो एक साथ चैप्लिन, आइंस्टीन, स्तालिन, च्यांगकाई शेक, माओत्से दुंग और विश्व की अन्य कई सारी विभूतियों से संवाद करने की क्षमता रखते थे और संवाद कर भी रहे थे.
उनको मालूम था कि अंग्रेज भारत को शून्य पर छोड़ कर जाएंगे, इसलिए उन्हें पूरी तरह तबाह हो चुके सोवियत संघ की के पुनरुत्थान के लिए स्तालिन की पंच वर्षीय योजनाएं अपनाने से कोई गुरेज नहीं था.
सबसे बड़ी बात कि देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे किसी भी नेता के दिमाग में आज़ाद भारत के भविष्य का व्यापक खाका नहीं था. यहां तक कि गांधी भी राम राज्य का से कोई काल्पनिक ढांचा लिए बैठे थे, जैसे कि 80 के दशक में जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति या दल विहीन राजनीति की कल्पना की थी. एक नवजात आज़ाद देश के भविष्य के करीब करीब हर पक्ष पर नज़र नेहरु की ही थी.
गांधी भी लाख विरोध के बावजूद नेहरु की लोकतांत्रिक सोच, उनके बेहद धार्मिक खुलेपन और वैज्ञानिक आग्रह से मुहँ नहीं मोड़ सके. गांधी के लिए किसी भी नेता के मुकाबले नेहरु लंबी रेस का घोड़ा थे.
जारी.....
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