- Get link
- Other Apps
- Get link
- Other Apps
ब्रिटिश लोग भारत पर अपने शासन को मेरिट और नस्लीय श्रेष्ठता के आधार पर सही ठहराते थे. इन्हीं वजहों से भारतीयों को उच्च और मुख्य पदों से वंचित भी रखा जाता था.
इस 200 साल पुरानी असमानतापूर्ण और शोषणकारी व्यवस्था के विरोध को भारतीय इतिहासकारों ने मूलतः अधिकार और आज़ादी की लड़ाई , समानता और न्याय की लड़ाई तथा अधर्म के विरुद्ध धर्म की लड़ाई आदि माना है. इतना ही नहीं उन्होंने ब्राह्मणीय धर्म और संस्कृति के महिमामंडन , संशोधन , पुनर्स्थापना और उसके प्रचार-प्रसार को ' पुनर्जागरण ' का नाम दिया है.
भारतीयों ( ऊंची जाति के ) की सीधी सी मांग थी कि यहां के संसाधनों पर हमारा अधिकार है. हम स्वयं अपने जीवन की रूपरेखा तय कर सकते हैं. हम निम्न नहीं हैं बल्कि हमारा अतीत गौरवशाली रहा है. हमारी संस्कृति उच्च कोटि की रही है. इसलिए हमें अंग्रेजों जैसे कथित श्रेष्ठ और अन्यायी लोगों के अधीन रहने की जरूरत नहीं है. हम उनका शोषण सहने को बाध्य नहीं हैं. हमें आज़ादी चाहिए.
लेकिन इस इतिहासबोध से ग्रस्त लोग अपने लोगों के संदर्भ में ये तर्क भूल जाते हैं. उन्हें दलित , पिछड़े , आदिवासियों आदि का 2000 साल से भी अधिक पुरानी असमानतापूर्ण और शोषणकारी व्यवस्था के प्रति विद्रोह जातीय उन्माद लगता है. उसके विरुद्ध उनकी एकजुटता जातीय गोलबंदी नज़र आती है. उनकी समानता , न्याय , प्रतिनिधित्व और संसाधनों के समुचित वितरण की मांग महज़ पहचान की राजनीति लगती है. सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करने की प्रक्रिया जातीय राजनीति की कुत्सित चेष्टा नज़र आती है. अतीत को किसी थोपे गए नज़रिये की जगह अपने नज़रिये से देखना और ब्राह्मणीय संस्कृति-इतिहास से इतर अपने अतीत तथा संस्कृति की स्थापना विभाजनकारी प्रतीत होता है.
वस्तुतः पहचान की राजनीति सांस्कृतिक होती है. इसमें भूगोल और इतिहास के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक भेद मुख्य भूमिका में होता है. बहुजनों या हाशिये के लोगो का कोई भी आन्दोलन न्याय और बराबरी के मूल्यों पर आधारित रहा है. अस्मिता उसका मूल आधार नहीं है. फिर भी उसे पहचान की राजनीति के रूप में चिन्हित करने का फायदा ये है कि इससे वह राजनीतिक प्रश्न नहीं रह जाता बल्कि वह महज़ "सांस्कृतिक समस्या" के रूप में "रिड्यूस" हो जाता है. और चूंकि सांस्कृतिक प्रश्न इतने महत्वपूर्ण नहीं होते और वे व्यापक मुक्ति के प्रश्न के प्रत्यय मात्र होते हैं इसलिए वे टाल दिए जाने लायक होते हैं.
इसीलिए घामड़ बुद्धिजीवियों का इस टर्म पर कुछ ज्यादा ही जोर रहता है. वो चाहे वामपंथी बाभन हों चाहे बद्री जी जैसे गैर-वामपंथी बाभन. फर्क सिर्फ इतना है कि वामपंथी बाभन , आर्थिक वर्ग के बरक्स पहचान की राजनीति कहकर बहुजनों के आंदोलन और उभार को महत्वहीन करार देते रहे हैं और बद्री जी राष्ट्र जैसे दगे हुए कारतूस के बरक्स इसे कमतर दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.
बद्री जी जैसे पढ़े-लिखे बाभन विद्वान द्वारा ' पहचान की राजनीति ' टर्म का इस लेख में "दस बार" ..ध्यान दीजिये करीब दस बार पिष्टपेषण यूँ ही नहीं है. ये एक बड़े विमर्श और आंदोलन को उसकी कुछ कमियों के आधार पर ' रिड्यूस ' करने का एक कुत्सित प्रयास है. लेकिन इसका कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला है. ऐसे लोग आए और इस तरह के प्रयास में नाक रगड़ते हुए मर-खप गए.
समाज अपनी गति से आगे बढ़ता रहा , बढ़ रहा है और बढ़ता रहेगा.
Comments
Post a comment