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प्रेम में डूब कर जीना और उस भाव को स्याही से कागज पर उकेर देना ये अमृता प्रीतम से बेहतर कौन कर पाया. मेरे लिए अमृता अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' में सिमटी एक सुकून की दुनिया है. जब-जब मुझे प्रेम की राह में ठोकरें मिली तो रसीदी टिकट ने मुझे संभाला है. आलम ये है कि प्रेम में डूबे होने पर या हिज्र में जीते हुए भी अमृता का साथ होना बेहद जरूरी है.
अमृता को आज इस लिए भी याद कर रहा हूं कि 31 अगस्त को उनकी यौम-ए-पैदाइश है. अमृता का जन्म 31 अगस्त 1919 को पंजाब (भारत) के गुजरांवाला जिले में हुआ था. अमृता पर लिखना ऐसा है जैसे उन्मुक्त हवा को बांधने की सिफर सी कोशिश करना. क्योंकि अमृता को न कोई बांध पाया था, न कोई बांध पाएगा. अपने आजाद ख्यालों से साहित्यिक दुनिया के माथे पर बल लाने की कूवत रखने वाली अमृता की दुनिया ही अलग सी थी.
अमृता का जीवन साहिर लुधियानवी के जिक्र के बिना अधूरा सा लगता है. न जाने कितनी रचनाएं अमृता ने साहिर के प्रेम में लिखीं. हालांकि ये प्रेम अपने वजूद को न पा सका, लेकिन कई कहानियां अधूरी होकर भी पूरी सी लगती हैं. अमृता और साहिर की कहानी भी ऐसी ही है, जो पूरी न होकर भी पूरी सी लगती है. मन के मायनों में तो बेशक ऐसा ही है. इस कहानी के पूरा न होने के पीछे कई वजह हो सकती हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों को मानना है कि साहिर कभी पूरी तरह से अमृता के हुए ही नहीं. वहीं, अमृता प्रेम के सागर में डूबती चली गईं.
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Photo - Google |
अमृता के साहिर के लिए प्यार को उनकी आत्मकथा रसीदी टिकट में लिखे इस पीस से समझा जा सकता है. अमृता ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र करते हुए लिखा है- जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी. नैन बोलते थे. दोनों बस एक टक एक दूसरे को देखा किए. इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे. मुलाकात के बाद जब साहिर वहां से चले जाते, तो मैं सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होठों पर उनके होठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती.
खैर, प्रेम में अक्सर मंजिलें नहीं मिल पाती. इस कहानी को भी अधूरा ही रहना था. शायद अपनी इसी मोहब्बत के लिए साहिर लुधियानवी ने लिखा था-
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.
लेकिन वो अमृता ही क्या जो ठहर जाए, जो रुक जाए. अमृता अपनी रचनाओं, अपने लिखे में खुद के दर्द और विक्षोभ को उकेरती गईं. हर दिन कुछ नया रचती गईं. इसी बढ़ने के दरमयान उनकी मुलाकात होती है चित्रकार इमरोज से. इमरोज, जो अमृता के जीवन में बहार बनकर आए. इमरोज वो प्रेमी जो अमृता को उस कदर चाहने लगा जैसा अमृता साहिर को चाहती थीं.
अमृता और इमरोज के बीच उम्र में सात वर्ष का फासला था. इस लिए एक बार को ये आजाद ख्याल लेखिका भी इस रिश्ते से घबरा गई मानों. दरअसल इस भाव का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि जब इमरोज और अमृता ने साथ रहने का निर्णय लिया तो उन्होंने इमरोज से कहा- 'एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी तुम मुझे चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं. मैं तुम्हें यहीं इंतजार करती मिलूंगी.' इसपर इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और अमृता से कहा- 'हो गया अब...' जिस लिव-इन को लेकर लोग आज भी तौबा-तौबा करते हैं. अमृता ने उस जमाने में इसे जिया था. साहिर और इमरोज से अपने रिश्ते को बयान करते हुए अमृता ने कहा था-
'साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत.'
दरअसल, प्रेम में जीवन बिताने की वजह से ही अमृता की कलम से प्रेम की स्याही ही निकलती थी. जो हर उम्र के लोगों को सुकून देने का काम करती है. उस स्याही में गुलमोहरी सपने हैं तो हिज्र की रातें भी हैं. प्यार का उगता सूरज है तो अधूरापन लिए अस्त होती कहानियां भी. अमृता प्रेम का वो अमृत है जो लोगों को जिला रहा है. तड़प को शांत कर रहा है और प्रेम को फैला रहा है, अमृता की दुनिया से इस बोझिल दुनिया तक.
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