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By - शुभनीत कौशिक
‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ और ‘ए बेंड इन द रिवर’ सरीखी कालजयी कृतियों के लेखक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकर वीएस नायपाल का 85 वर्ष की आयु में कल निधन हो गया। सम्मोहित कर देने वाला अद्भुत गद्य लिखने के लिए प्रसिद्ध नायपाल अपने विवादित विचारों के लिए भी चर्चित रहे। जैसा कि सलमान रश्दी ने नायपाल को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि ‘साहित्य और राजनीति के तमाम मुद्दों पर हमारे बीच ज़िंदगी भर असहमतियाँ रहीं, पर आज उनके जाने के बाद ऐसा लगता है कि मैंने अपना बड़ा भाई खो दिया।’
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वीएस नायपाल |
‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’ और ‘ए बेंड इन द रिवर’ सरीखी कालजयी कृतियों के लेखक और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकर वीएस नायपाल का 85 वर्ष की आयु में कल निधन हो गया। सम्मोहित कर देने वाला अद्भुत गद्य लिखने के लिए प्रसिद्ध नायपाल अपने विवादित विचारों के लिए भी चर्चित रहे। जैसा कि सलमान रश्दी ने नायपाल को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि ‘साहित्य और राजनीति के तमाम मुद्दों पर हमारे बीच ज़िंदगी भर असहमतियाँ रहीं, पर आज उनके जाने के बाद ऐसा लगता है कि मैंने अपना बड़ा भाई खो दिया।’
1932 में त्रिनिदाद में वीएस नायपाल का जन्म एक भारतीय परिवार में हुआ, जो उन्नीसवीं सदी में त्रिनिदाद गया था। 1950 में नायपाल अँग्रेजी की पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड गए। युवा नायपाल के आत्मविश्वास का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि अपने पिता सिवप्रसाद को लिखे खत में नायपाल ने लिखा - “मुझे इन लोगों को दिखाना है कि मैं इनकी ही भाषा में इन्हें पीछे छोड़ सकता हूँ।” बीबीसी के लिए काम करते हुए नायपाल ने कहानियाँ लिखनी शुरू की।
पर जिस कृति ने नायपाल को पहचान दिलाई, वह थी – ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास’। 1961 में छपे इस उपन्यास का मुख्य किरदार ख़ुद नायपाल के पत्रकार पिता से प्रेरित था। उपन्यास के नायक मोहन बिस्वास के जरिये यह उपन्यास त्रिनिदाद के ग्रामीण इलाके में भारतीय परिजनों की संतान के जीवन-संघर्षों को बयान करता था, जिसमें एक ऐसी जगह की तलाश भी शामिल थी, जिसे वह अपना कह सके।
साठ के दशक के आरंभ में ही नायपाल ने भारत की यात्रा की, जिसका विवरण 1964 में उनकी किताब ‘एन एरिया ऑफ डार्कनेस’ में छपा। इसी तरह अस्सी के आरंभ में अफ्रीकी देशों और इस्लामिक देशों (ईरान, मलेशिया, और पाकिस्तान) में नायपाल की यात्राओं का विवरण क्रमशः ‘ए कांगो डायरी’ और ‘एमंग द बिलिवर्स’ में छपा।
इन यात्रा-विवरण में निहित पूर्वाग्रहों पर टिप्पणी करते हुए एडवर्ड सईद ने लिखा था कि “लातिन अमरीकी, अफ्रीकी, कैरेबियाई, इस्लामिक और भारत से जुड़ा हुआ नायपाल का विवरण औपनिवेशिक मिथकों को ही बगैर सोचे-समझे प्रस्तुत करता है।’
1967 में नायपाल की किताब ‘द मिमिक मेन’ छपी, जिसका मुख्य किरदार राल्फ सिंह एक भारतीय मूल का कैरेबियाई नेता था, जो इंग्लैंड में रहते हुआ अपना संस्मरण लिख रहा था। नायपाल ने इस उपन्यास में ‘मिमिक मेन’ की अवधारणा पेश की, जिसकी आलोचना होमी भाभा ने अपने लेख ‘ऑफ मिमिक्री एंड मैन’ में की। होमी भाभा ने दिखाया कि मिमिक्री भी उपनिवेशों के लोगों के लिए सबवर्जन का एक जरिया था, जिससे वे उपनिवेशवादियों की खिल्ली उड़ाते थे और जाने-अनजाने उनकी सत्ता-प्रणाली को चुनौती देते थे।
नायपाल की किताब ‘ए राइटर्स पीपल’ की समीक्षा करते हुए इतिहासकार संजय सुब्रमण्यम ने नायपाल की पृष्ठभूमि पर ज़ोर दिया था। संजय सुब्रमण्यम के अनुसार उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में ही त्रिनिदाद में जा बसे हिंदुओं में सनातन धर्म और नव-हिंदूवाद की लहरें ज़ोर मारने लगी थीं, जो आगे चलकर और दृढ़ हुईं। जिसका स्पष्ट प्रभाव नायपाल के चिंतन व लेखन पर झलकता है।
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