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फ़ोटो - अमेज़ॉन |
प्रोफेसर बिपिन चंद्र , मृदुला मुखर्जी और आदित्य मुखर्जी ने एक किताब लिखी है - " आज़ादी के बाद भारत ( 1947-2000 ) "
इसमें एक चैप्टर है जाति अस्पृश्यता , जातिविरोधी राजनीति और राजनीतियां.
इस चैप्टर के अंतर्गत पेज 584 पर ये त्रयी लिखती है - " संविधान में जनजातियों के लिए विधायिकाओं , शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी सेवाओं में सीटों के आरक्षण का प्रावधान भी जोड़ा गया. आरंभ में आरक्षण 10 वर्ष के लिए किया गया लेकिन तब से इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा है. "
संविधान की सामान्य जानकारी भी रखने वाले किसी व्यक्ति की यह पढ़ कर हंसी छूट सकती है. मतलब क्या सोचकर लेखक त्रयी ने इतनी बड़ी मक्कारी की है ? क्या उन्हें ये लगता था कि उनका लिखा कूड़ा करकट सिर्फ सवर्ण ही पढ़ेंगे ? शायद यही मसला रहा होगा. क्योंकि इतिहास के नाम पर जो बात उन्होंने लिखी है वो एक खास तबके को ही एड्रेस करती है.
आरक्षण सिर्फ दस साल के लिए था , यह जुमला सवर्णों के बीच आज भी लोकप्रिय है. मेरा अनुमान है कि यह जुमला इसी किताब से आया है. ये लेखक की अज्ञानता है या मक्कारी इसे लेखक ही जानते होंगे.
सच यह है कि जिस 10 वर्षीय आरक्षण की बात की गयी है वह सिर्फ विधायिका के लिए था न की शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों के लिए.
विधायिका में यह आरक्षण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के तहत प्रदान किया गया है.
अनुच्छेद 330 के अनुसार अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति को संसद में राज्यवार जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्रदान किया गया है जबकि अनुच्छेद 332 के तहत विधानसभाओं में यही व्यवस्था लागू है.
यह प्रावधान 10 वर्ष के लिए था और अनुच्छेद 334 के अनुसार आवश्यकता पड़ने पर इसे 10 वर्ष के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है.
विधायिका में दिए गए इस दस वर्षीय आरक्षण को समय समय पर बढ़ाया जाता है. भारतीय संविधान के 95वें संशोधन ( 2009 ) द्वारा इसे वर्ष 2020 तक बढ़ाया गया है.
अब सोचिये , ये इतिहासकार कितने महान हैं ? क्या इन महान इतिहासकारों को आरक्षण की बेसिक समझ भी नहीं थी ? क्या इन्हें संवैधानिक प्रावधानों की जरा भी जानकारी नहीं थी ? इतना कॉन्फिडेंस के साथ झूठ लिखने की हिम्मत इनमें कहाँ से आयी ? सोचिये.
मैं इन्हीं सब के चलते मुख्यधारा के किसी भी इतिहासकार को भरोसे के लायक नहीं मानता हूं और उनकी लिखी हर बात को अपने स्तर पर क्रोसचेक करता हूँ. मुझे पता है जो स्थापित लेखक है वो कभी खरा सच लिखकर स्थापित नहीं सकता है. वह तभी स्थापित हो सकता है जब उसका लेखन एक खास जाति , दल और वर्ग विशेष के हितों का पोषण करता हो.
लेखक - स्वतंत्र विचारक हैं।
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