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#LifeOfMumbaikar #LocalTrain
वैसे तो मुम्बई में हर साल लोकल ट्रैन और भीड़ से मरने वालों की संख्या 3500 से भी ज्यादा है।औसत निकाले तो रोज की दस से भी ज्यादा मौतें। हर साल रेलवे चुपचाप नही सभी को बता कर रिपोर्ट जमा करती है फिर भी कोई बात करने वाला नही होता। कोई सरकार इसपर बात तक करना नही चाहती। कुछ प्लेटफार्म और ब्रिज की चौड़ाई इतनी कम और पुराने हैं कि उसे तुरंत बदलने की जरूरत है। सरकार ही नही यहां लोगों से भी इस बारे में बात करो तो हँसते हुए एक ही लाइन कहते हैं
"अरे लोग तो यहां मरते रहते हैं। चिंता मत करो"
मानो जैसे ये लाइन मुम्बई आने के साथ ही रटा दी जाती है। बात करते हुए लोगों के चेहरे से ये नही लगेगा इन्हें कोई दुख है। या तो इनके पास दुख व्यक्त करने का भी समय नही है या फिर इनको आदत सी हो गयी है।
मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैंने पहली बार दो मृत शरीर ऐरोली स्टेशन के पास ट्रैक पे पड़े हुए देखा था। लोग बता रहे थे ट्रैन से गिर कर इनकी मौत हो गयी। उम्र होगी लगभग 35 से 40 साल, आसपास भीड़ इकट्ठा हुए थी। थोड़ी ही देर में पुलिस आती है और ट्रैक से लाश को हटा कर पास की झाड़ी में रख देती है। हमने जब वहां लोगों से पूछा अब क्या? मुझे लगा था लोग अब इस बारे में बात करेंगे, लोग इकट्ठा होंगे पूछेंगे आखिर कब तक लोग ऐसे मरते रहेंगे। ये रेलवे कब तक सुरक्षित हो जाएगी। पर इसके विपरीत मुझे जबाब मिला
"भैया, लोग यहां मरते रहते हैं आप चिंता मत करो"
ये जबाब मुझे विचलित कर गयी। थोड़ी देर बाद एम्बुलेंस आकर लाशों को ले जाती है। मन न होने के बावजूद भी मैं ऑफिस चला जाता हूँ। उस दिन ऑफिस मैं देर से पहुंचा था, मन में सैकड़ों सवाल चल रहे थे। ऑफिस जाकर भी मैंने बात करने की कोशिश की पर उनका जबाब भी वैसा ही था
" लोग तो रोज मरते है, ट्रैन तो टाइम पे चल रही थी न।"
क्या हमें इसलिए फर्क नही पड़ता क्योंकि मरने वाला हमारा प्रियजन नही है?
क्या हम इतने स्वार्थी हो गए हैं?
मुम्बई में लोकल ट्रेन और भीड़ की वजह से होने वाली हत्या की चुप्पी पर नवाज़ देवबंदी का ये शेर याद आ गया।
जलते घर को देखने वालों फूंस का छप्पर आपका है।
आपके पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है।।
उस के क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया।
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप है अगला नम्बर आपका है।।
क्या हम अपने किसी प्रियजन के खोने का इंतज़ार कर रहे है ?
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