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इलाहाबादी बकैती और उसका मिजाज़ नहीं बदलेगा, चाहे जितने नाम बदल दो
मैं इलाहाबाद में पैदा तो नहीं हुआ लेकिन जो अभी हूँ वो इलाहाबाद की ही कमाई है और खुद को इलाहाबादी ही मानता हूँ। पक्का इलाहाबादी तो नहीं हो पाऊंगा लेकिन इलाहाबादी बकैती अच्छे से सीख गया हूँ। इलाहाबादी मिजाज़ ही ऐसा है जो सबको अपने में समेट लेता है। जो वहां गया वो वहीँ का हो गया और उसके अंदर इलाहाबादीपन हमेशा के लिए समा जाता है। 4 साल हो गए इलाहबाद छोड़े लेकिन अब भी जैसे ही स्टेशन पर उतरता हूँ तो अचानक से मिजाज़ बदल जाता है और एक इलाहाबादी अकड़ और बकैत घुस जाता है और ससुरा पूरा कैरेक्टर ही चेंज हो जाता है।
कोई शहर अपने मिजाज़, वहां रहने वाले लोगों, वहां के खांटीपने, वहां की चाल और उसकी संस्कृति से जाना जाता है और इलाहाबादी अल्हड़पन का अंदाज़ अलग ही है। इलाहाबाद अपने नाम से नहीं बल्कि अपने इलाहाबादीपने से मशहूर है और इसे कोई भी नहीं बदल सकता चाहे कुछ भी बदल जाए।
आज इलाहबाद था कल से प्रयागराज होगा लेकिन वो सिर्फ कागज़ों में होगा, लोगों के दिलों में और उनके मिजाज़ में, उनकी बोली भाषा और उनके अंदाज़ में इलाहाबद ही बसेगा, प्रयागराज नहीं। क्योंकि इलहाबाद कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है, वह एक संस्कृति है और इसी नाते इसकी पहचान है जो इससे कोई नहीं छीन सकता। शहर लोगों का होता है तो सरकार ने लोगों से क्यों नहीं पूछा कि क्या लोग भी इलाहाबाद को प्रयागराज बोलना चाहते हैं, शायद ही कोई इलाहाबादी कहता कि नाम बदल दो। मुंह उठाकर आपने नाम बदल दिया और कल अपनी उपलब्धियों में गिना देंगे बिना ये सोचे कि ये जो किया है वो किया है। उसको काम नहीं मज़ाक कहा जाता है।
इलाहाबादी दोपहर में दाल,भात,चोखा खा कर मस्त सोता है और चाय पर घंटो अख़बार पढ़ते हुए बकैती मारता है। वो आगे भी यही करेगा। यहाँ फुटपाथ पर किताब बेचने वाला भी किताबों और उसके लेखक का नाम जानता है और जब तक यहाँ किसी को भोसड़ी के कहकर ना बुलाओ तब तक उसे लगता है कि अगला नाराज़ है, ये है इलाहाबाद और ऐसा है मिजाज़ उसका। तो मियां जब मिजाज़ वही है अंदाज़ वही है चाल यही है और आगे भी वही रहेगी तो तुम क्यों मेहनत कर रहे हो नाम-वाम बदलने में। शांति से बैठे रहो और जनता ने जिसके लिए भेजा है वो काम करो। बाकि जब कुम्भ लगेगा तो आना और संगम में डुबकी लगा के चले जाना मे, इलाहाबादियों के चक्कर में पड़ोगे तो पछताओगे।
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