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Art Work : Burial of Atala |
नज़्म - उनवान : आख़िरी किश्त
मैंने तुम्हे रोकने की बारहा कोशिश की
मगर तुम हाथ से छूटती रेत की मानिंद
मुझसे दूर होती गयी
अब मैं इस कफ़स ए ख़्याल में उलझा हुआ हूँ
कि आख़िर मेरा अधूरा पड़ा ज़ाविया
किन हालात में किन हिस्सों से मुक़म्मल होगा
किस बदन के लम्स से ये बे-बदन होगा
तुम्हे अंदाज़ा ही नहीं
तुम्हारे जाने के बाद
ये बदलते दिन ओ माह ओ साल
वहीं के वहीं रुक गयें हैं
मुझे दुनिया की फ़िक्र सताने लगी है
जिसके ज़र्रे में मेरा कोई भी नहीं है
तुम्हें याद रहता था वक़्त का गुज़रना
तुम घड़ी की सुईयां दिखा
ये बतला देती थी कि जाने का वक़्त हो गया है
मैं कब से इस इंतज़ार में बैठा हुआ हूँ
कि वो शख़्स जो जाने का कह के गया था
अभी तक वो लौटा ही नहीं है
आफ़ताब ए अर्श भी ढलने को आ चुका है
मेरे पास न तुम हो न तुम्हारा सूरत ए आईना है
कितने ख़्वाब रेज़ा रेज़ा बिखर चुके हैं
अब तो हर ख़्याल चश्म का मोजज़ा है
वो खाली पड़ा कैनवस
जाने कब से तुम्हारी चाहत लिए
कमरे के कोने में धूल खा रहा है
उसे मालूम है कि इक रोज़ तुम आओगी
उसपर पड़ने वाले रंगों की किश्त अदा करोगी
मैं जानता हूँ ये मुमकिन नहीं है
आख़िरी मुलाकात, आख़िरी बोसा, आख़िरी किश्त
सब वहीं पे रुके हुए हैं
मगर मुड़ के आने को तू ही नहीं है
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