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By - ऋषभ
किसी की प्रतिमा बनाने के पीछे क्या मकसद होता है ?
प्रतिमा किसी व्यक्ति, घटना या किसी बड़े कार्य की याद में बनाई जाती है. अगर ये चीजें किसी युद्ध या संघर्ष से जुड़ी हैं, तो लोगों की बहादुरी या उनके संत्रास को भी प्रतिमा के माध्यम से याद किया जाता है. प्रतिमा बनाने से सामाजिक दुख पर मरहम लगाया जा सकता है, भूतकाल को यादकर वर्तमान की चुनौतियों से निपटा जा सकता है या फिर किसी सामाजिक प्रतीक के रूप में किसी अपमान का बदला लिया जा सकता है.
क्या प्रतिमा बनाकर कुछ साबित किया जा सकता है ?
अभी भारत ने दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाई है और इसके लिए वर्तमान भाजपा सरकार ने कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता सेनानी, भारत की रियासतों का विलय कराने के नायक सरदार बल्लभभाई पटेल को चुना. प्रतिमा पर कांसे का आवरण चढ़ाने के लिए चीन की एक कंपनी की मदद ली गई. बल्लभभाई पटेल ने अपने वक्त में भारत को चीन से सावधान रहने की सलाह दी थी. पटेल को काफी प्रैक्टिकल राजनीतिज्ञ माना जाता था. इस मूर्ति से पहले चीन की स्प्रिंग बुद्ध की मूर्ति दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति थी. एक अधार्मिक देश चीन ने मूर्ति के लिए एक धर्म के महापुरुष को चुना. ये महापुरुष भारत के थे. बुद्ध की मूर्ति ने अमेरिका के स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी को पीछे छोड़ा था. ऐसा माना गया कि चीन हर जगह अमेरिका को पछाड़ रहा है, तो मूर्ति में पछाड़कर सांस्कृतिक विजय हासिल की. अमेरिका की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी को फ्रांस से लाया गया था. वो मूर्ति पहले स्वेज नहर के पास लगाई जानेवाली थी और ऐसे ही कई और जगहों पर लगते लगते अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर पहुंच गई.
अमेरिका के स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की तर्ज पर ही सरदार पटेल की प्रतिमा को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी कहा जाएगा. आजादी से पहले और आजादी के बाद भी हिंदुस्तान की मुख्य समस्या एकता का ना होना ही रही है. ऐसा हमारे देश की जनता और विद्वानों ने वक्त के साथ इतिहास को निचोड़कर निकाला. ये सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है. पर आजादी के बाद सारी रियासतों का विलय तो संभवतः भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी घटना थी. ऐसा होना असंभव माना जाता था. दुनिया के राजनीतिज्ञों ने अनुमान लगाया था कि दस साल में भारत टूट जाएगा. हम यहीं खड़े हैं और अब सारी दुनिया हमारी तरफ टकटकी लगाकर देख रही है. कि भाई और कितने बच्चे पैदा करोगे, थम जा.
स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी का अमेरिकी महिलाओं ने खूब विरोध किया था. क्योंकि एक औरत की प्रतिमा खड़ी की जा रही थी, पर उस वक्त अमेरिका में औरतों को वोट देने का अधिकार नहीं था. इसी तरह सरदार पटेल की प्रतिमा का भी हिंदुस्तान में विरोध किया जा रहा है. लोग कह रहे हैं कि ये पैसा गरीबों के हक में जाता.
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एक प्रतिमा के कितने पहलू हो सकते हैं?
जब किसी योद्धा की प्रतिमा लगाई जाती है तो वो घोड़े के साथ होती है. घोड़ा दो मुद्राओं में खड़ा होता है. कहानी है कि एक टांग उठाये घोड़े का मतलब है कि सवार योद्धा मैदान-ए-जंग में घायल हुआ था. अगर घोड़ा अपने दो पैरों पर खड़ा है तो मतलब योद्धा शहीद हुआ है. घोड़ा अपने पिछले दोनों पैरों पर ही खड़ा होगा. अगर किसी ने ऐसी प्रतिमा बनाई जिसमें घोड़ा अगले दोनों पैरों पर खड़ा है, मतलब सवार योद्धा का मजाक बनाया जा रहा है क्योंकि घोड़ा उनके नियंत्रण में नहीं है. पहले तो प्रसिद्ध घोड़ों की प्रतिमाएं भी बनती थीं. पर एक वक्त के बाद घोड़ों की उपयोगिता खत्म हो गई तो इनकी प्रतिमाएं बननी बंद हो गईं.
पर इतिहास कभी सीधा नहीं होता. चूंकि वर्तमान भी कुछ वक्त के बाद इतिहास हो जाता है, इसलिए ये भी सीधा नहीं होता. उत्तराखंड के प्रसिद्ध सफेद घोड़े शक्तिमान को एक विधायक ने लाठी मार दी थी और वो मर गया. उसकी याद में एक घोड़े की प्रतिमा उत्तराखंड में बनाई गई है.
इसी प्रकार से किसी भी प्रतिमा के कई पहलू हो सकते हैं. सरदार पटेल की प्रतिमा बनाते हुए इस बात का ख्याल रखा गया है कि चेहरे से गांभीर्य टपकता रहे. ऐसा लगे जैसे वो पानी पर चल रहे हों पर स्थितप्रज्ञ हों. ये प्रतिमा हंसते हुए नहीं बनाई जा सकती थी. ऐसा नहीं था कि सरदार पटेल हंसते नहीं थे, वो तो हंसोड़ माने जाते थे. पर प्रतिमा का उद्देश्य हंसने से पूरा नहीं हो सकता.
अगर आजाद हिंदुस्तान की बात करें तो लगभग 1995 तक भारत लगातार टूटने के भय में जी रहा था. हर समस्या के पीछे विदेशी हाथ का जिक्र किया जाता था. ऐसा लगता था कि भारत के राज्य भारत में रहना ही नहीं चाहते हैं. पोखरण परमाणु परीक्षण, करगिल, आईटी सेक्टर में बूम और इंटरनेट इत्यादि के आते आते भारत सिर्फ कश्मीर में ही अलगाववाद से जूझ रहा है. बाकी जगहों पर तो काफी हद तक ये प्रवृत्ति खत्म हो गई है.
पर पिछले कई सालों से सामाजिक रूप से भारत टूट रहा है. पहली बार राइट-लेफ्ट, हिंदू-मुसलमान, नारी-मर्द, भैय्याजी-नेटिव, शहरी-गंवार, अपर क्लास-लोवर क्लास के मतभेद खुल के सबके सामने आ रहे हैं. ऐसा नहीं था कि ये मतभेद पहले नहीं थे. थे पर सबके सामने नहीं थे. सोशल मीडिया आने के बाद हर तरह के मतभेद सबके सामने हैं. हम अपनी समस्या से जूझते हुए दूसरों के मामलों में भी आसानी से टांग अड़ा सकते हैं. तो इस माहौल में सरदार पटेल की प्रतिमा सामयिक है.
राजनीतिक उत्तराधिकार के बारे में कहें तो भारतीय जनता पार्टी को पूरा हक है कि वो सरदार पटेल को अपना ले क्योंकि कांग्रेस ने कभी कोशिश नहीं की अपनाने की. गुजराती अस्मिता के नाम पर ही सही, कुछ तो कनेक्शन खोजना ही पड़ेगा. अगर गुजरात जाएं तो आम जनमानस में ये धारणा है कि महात्मा गांधी ने नेहरू को उत्तराधिकारी बनाने के लिए सरदार पटेल की उपेक्षा की. बात छोटी मोटी नहीं है, भारत जैसे देश के पहले प्रधानमंत्री बनने का सवाल है. यही विडंबना है प्रतिमाओं की. राष्ट्रीय एकता के मूल में क्षेत्रीय अस्मिता विराजमान है और इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है.
इतिहास ने क्या किया है प्रतिमाओं के साथ ?
अगस्त 2018 में कनाडा के विक्टोरिया में कनाडा के ही प्रथम प्रधानमंत्री जॉन मैक्डॉनल्ड की प्रतिमा गिराने का प्लान हुआ. कनाडाई मानस में मैक्डॉनल्ड की इमेज एक कॉलोनियल आतताई की है, जो कि किसी प्रतिमा से कहीं ज्यादा गाढ़ी है. हर देश की तरह इस देश का भी जटिल इतिहास है. कायदे से तो पूरी कनाडाई वाइट आबादी को देश छोड़ देना चाहिए, क्योंकि मूलनिवासियों का हक मारा है इन्होंने. पर ये संभव नहीं है. तो किसी एक को सबसे क्रूर साबित कर सबके पापों का घड़ा उसके ऊपर फोड़ा जा सकता है. और ये माना जा सकता है कि इस प्रतिमा के गिरते ही सारे पाप खत्म हो गये और हम सारे लोग शांति से रह सकते हैं.
प्रतिमा के गिरने से याद आया, सद्दाम हुसैन की प्रतिमा को अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी में लोगों ने रस्सी से बांधकर गिराया था. अभी त्रिपुरा में भाजपा की जीत के बाद लेनिन की प्रतिमा को उसी अंदाज में गिराया गया. बामियान में तालिबान ने बुद्ध की प्रतिमाओं को गिराया था. अमेरिका में कनफेडरेसी के नायकों/खलनायकों की प्रतिमाओं को लेकर घमासान मचा रहता है. वहां भी इनको गिराने की बात की जा रही थी. ये नायक और खलनायक दासप्रथा के उन्मूलन में लड़े थे. कोई उन्मूलन चाहता था, कोई नहीं चाहता था. लोकल स्तर पर योद्धा थे, पर इतिहास की नजर में नायक और खलनायक बन गये. दक्षिण अफ्रीका में सेसिल रोड्स की प्रतिमा गिराने पर बहस होती रहती है क्योंकि रोड्स भी ब्रिटिश क्रूरता की प्रतिमा हैं. अब के दक्षिण अफ्रीका में उनकी क्या जरूरत?
जर्मनी में हिटलर या किसी नाजी नेता की प्रतिमा नहीं मिलती है. वो लोग अपने इतिहास पर शर्मिंदा हैं.
प्रतिमाएं बनती ही नहीं हैं, तोड़ी भी जाती हैं
सीरिया में 2011 के बाद हाफिज अल असद की प्रतिमाएं खूब बनीं और गिराई भी गईं. नॉर्थ अमेरिका में किम जान उंग के पापा और खुद उनकी खूब प्रतिमाएं बनती हैं. रोम में फराओ की खूब प्रतिमाएं मिलती हैं. तूतनखामेन की प्रतिमा विश्वविख्यात है.
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हाफिज अल असद की प्रतिमा |
हिंदुस्तान में मायावती की प्रतिमाओं को लेकर खूब बवाल कटा था. कहा जा रहा था कि कोई खुद की ही प्रतिमा क्यों नहीं बनवा सकता. पर देखा जाए तो एक दलित औरत की प्रतिमा अगर वो खुद ना बनवाए तो कौन बनवाएगा? क्या अभी के हिंदुस्तान में ये संभव है कि कोई बनवा दे ?
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मायावती की प्रतिमा |
इतिहास किसी को छोड़ता नहीं. ऐसा नहीं हो सकता कि हम आंख मूंदकर आगे चलते रहेंगे और सब अपने आप ठीक हो जाएगा. अगर अभी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनी है तो इसका ऐतिहासिक महत्व है. आखिर कौन सी राजनीतिक, सांस्कृतिक ताकतें हैं जिन्होंने इसका निर्माण सरकार के हाथ कराया? वक्त की कौन सी वो बयार है ?
प्रतिमाएं सिर्फ बनती ही नहीं हैं, तोड़ी भी जाती हैं. टूटनेवाली प्रतिमाओं के पीछे इतिहास छुपा होता है. अब तूतनखामेन के चाचजाद भाई जिंदा तो हैं नहीं, तो उनसे क्या दुश्मनी. पर स्टालिन और लेनिन के तो हैं. कालचक्र घूम के आता है.
सरदार पटेल की प्रतिमा है. तीन हजार करोड़ रुपये तो कुछ नहीं हैं, अगर इसका उद्देश्य पूरा हो जाए तो. राजनीति किसी की भूख या पैसे की उपयोगिता नहीं देखती. गांधी जी एक कपड़े में लपेट के रखने में जितना खर्च होता था, उतने में कई लोग रईसी से जिंदगी गुजार लेते. ऐसा ही कुछ वक्तव्य सरोजिनी नायडू ने दिया था.
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