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शादियों में जैसे दूल्हे से हर बात के लिए नेग मांगा जाता है, वैसी ही हालत इन दिनों सियासी मैदान में उतरे उम्मीदवारों की हो गई है। जाहिर तौर पर झंडे-डंडे उठाने वाले कितने ही कार्यकर्ता नजर आएं, लेकिन उनमें से अधिकतर पेड वर्कर्स हैं। जिनके खाने-पीने से लेकर घूमने-फिरने और जेब गर्म रखने की पूरी जिम्मेदारी उम्मीदवारों को उठाना पड़ रही है। कुछ मुफ्त में भी मदद कर रहे हैं। उनमें ज्यादातर वे हैं, जिनकी पंचवर्षीय योजनाएं हैं। यानी, ये पेड वर्कर्स पर भी भारी हैं। नेताजी को हल्के में नहीं छोड़ेंगे।
हालांकि नकद और उधार की चुनावी सेवाओं के बीच एक कौतुक जरूर हुआ है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने अपने पढ़े-लिखे कार्यकर्ताओं की पूरी टीम पार्टी उम्मीदवार के सुपुर्द की है। इनमें से अधिकतर मैनेजमेंट की पढ़ाई कर चुके हैं और चुनाव लडऩे के आधुनिक तरीके बखूबी समझते हैं। इन्हें हर बूथ पर उम्मीदवार के कार्यकर्ताओं के साथ लगाया गया है। अच्छी बात यह है कि यह पूरी सेवा मुफ्त में की गई है।
जैसे ही उम्मीदवार और उनके सहयोगियों तक यह बात पहुंची तो वे समझ ही नहीं पाए कि आखिर सियासत में ये दौर कहां से आ गया है। कोई इतनी बड़ी मदद कर रहा है और वह भी बिना किसी प्रतिफल के। अब तक तो वे छोटे से छोटे काम की दो-तीन गुना कीमत चुकाते आए हैं और कहां इतने कुशल लोगों की पूरी टीम बिना मांगे मिल गई है। हालत यह है कि उम्मीदवार के साथ नेता का शुक्रिया अदा करते नहीं थक रहे। क्योंकि आसपास के कई उम्मीदवारों ने तरह-तरह की भारी-भरकम फीस अदाकर इवेंट कंपनियों की सेवाएं ले रखी हैं, फिर भी बात नहीं बन रही।
वैसे नेताओं के साथ सेवा के नकदीकरण का मामला ज्यादा पुराना नहीं है। एक वक्त था, जब लोग पार्टियों के लिए दिन-रात काम करते थे, लेकिन जैसे-जैसे उनका चाल, चरित्र और चेहरा सामने आने लगा, सभी ने सेवा त्यागकर मेवा अपना लिया। अब मुफ्त में वे ही काम करते हैं, जिन्हें नेताजी बाद के सालों में टेंडर और परमिट दिलाते हैं या फिर प्रतिनिधि बनाकर कमिशन में हिस्सेदारी का मौका देते हैं।
क्योंकि चुनाव आम लोगों के लिए कुछ भी मायने रखें, लेकिन कार्यकर्ताओं के लिए किसी उत्सव से कम नहीं है। उन्हें पता है कि बाद में जनता की तरह उनके हाथ भी सिर्फ कोरे दिलासे आना है, इसलिए वे पहले ही मोलभाव करके कदम बढ़ाते हैं। सुनते हैं कि ऐसे तमाम क्षत्रपों की सेवा के लिए खास विधानसभाओं में उपहारों की खेप उतारी जा रही है। गाडिय़ां फाइनेंस कराने के लिए सूची बन गई है। कार्यकर्ता इच्छित लाभ दिला देगा तो नेताजी फाइनेंस पटा देंगे और नहीं तो डाउन पेमेंट के बाद की सारी किस्ते कार्यकर्ता के पल्ले पड़ेगी।
इसलिए नकद-उधार की इन सेवाओं के कुछ भुगतान चुनाव के पहले तो कुछ बाद में होंगे। अब इनके बीच कोई खर्च की सीमा और निर्वाचन आयोग की सख्ती की बात करे तो उसे बचपना नहीं तो और क्या कहेंगे।
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