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एक मदारी चौराहे पर आकर डमरू बजाने लगा। साथ में एक लडक़ा था, उसने बांसुरी बजाई, लडक़ी ने थाली ठोंकी और दो बंदर उसी पर उछलकूद करने लगे। एक ने लडक़े के कपड़े पहने थे, दूसरा लडक़ी के लिबास में था। इस शोर-शराबे का हासिल सिर्फ इतना था कि लोग जुटने लगे, गोल घेरा बनाकर खड़े हो गए। मदारी का तमाशा शुरू हो गया। जब तक भीड़ नहीं जुड़ी, मदारी और उसकी टीम सिर्फ शोर मचाकर लोगों का ध्यान खींचती रही। राह चलते लोग रुकते, ठिठकते और जिसकी दिलचस्पी जागती वह तमाशे का हिस्सा बन जाता, जिन्हें ये फिजूल लगता वे उड़ती हुई निगाह डालते और आगे बढ़ जाते।
जब लगा कि अब मजमा जम गया है, मदारी ने असली खेल शुरू किया। दो डंडों पर रस्सी बांध रखी थी। लडक़ी को चढ़ाकर उस पर खड़ा कर दिया। हाथ में बड़ा सा बांस लेकर लडक़ी एक-एक कदम बढ़ती जाती थी, इधर मदारी चीख-चीख कर उसका प्रचार करता रहता। देखिए, पेट की खातिर कितना जोखिम उठा रही है। एक बच्चा उसके ठीक नीचे रहता, जैसे कभी बैलेंस बिगड़ जाए तो वह उसे संभाल लेगा। लोगों का दिल भर आता कि देखो दो मिनट के तमाशे के लिए, हमारा मन बहलाने के लिए कितना परिश्रम कर रहे हैं। हाथ खुद ब खुद खुल जाते, तालियां बज जाती। किसी का हृदय और द्रवित होता तो एकाध सिक्का उछाल देता।
लडक़े और लडक़ी का करतब खत्म हुआ तो मदारी ने बंदर और बंदरिया को मैदान में उतार दिया। कभी उन्हें मियां-बीवी बताता तो कभी शाहरूख और करीना का नाम देता। दोनों एक-दूसरे को छेड़ते, चिढ़ाते और लाठी लेकर डराते-धमकाते भी। भीड़ को मजा आता देख मदारी उसमें फिल्मी संवाद घुसा देता। एक्सट्रा मेरिटल अफेयर और मियां-बीवी के रोजमर्रा के झगड़ों का तडक़ा लगा देता। कभी पड़ोसन को ले आता तो कभी उनके मां-बाप की कहानी सुनाने लगता। सियासी ड्रामा बनाने के लिए नेताओं का जिक्र भी चला देता। फिल्मी नाम उसे और दिलचस्प बना देते। लोग फिर तालियां बजाते, ठहाके लगाते और कुछ सिक्के उछाल देते।
अब मदारी कटोरे में जमा सिक्के देखता और झोली निकाल लाया। उसमें से तरह-तरह की दवाइयां और जड़ी-बुटियां थी। लोगों को इलाज का भरोसा दिलाया, एक-दो दिन में पुराने रोगों से निजात का भ्रम दिखाने लगा। किसी को बुला लिया, उसे कुछ चखाया, चटाया और कान का दर्द, दांत का दर्द, आधा सिर दुखने के इलाज साबित करा दिया। घुटने के दर्द का तेल निकाला, बाल झडऩे की दवा बताई, बवासीर का इलाज और मर्दाना ताकत के नुस्ख दिखाए। पुडिय़ा लेकर घूम ेगया। कुछ लोगों ने खरीदी कुछ ने देख-परख कर वापस कर दी।
अब मदारी अपने आखिरी रंग पर आया। बच्चों को लेटाकर उनके पेट की खातिर चाकू-छुरी का तमाशा दिखाने लगा। कभी निशाना लगाता तो कभी उनके बीच लड़ाई करा देता। बच्चों की आंखों से आंसू टपकने लगते। इधर, लोगों के चेहरों के भाव पढक़र मदारी और आग में घी डालता। लोगों को डराने लगा कि जो हाथ नहीं खोलेगा, उसके साथ ऐसा हो जाएगा, वैसा हो जाएगा। गरीब की बददुुआ कितनी असरदार होती है, इसके किस्से सुनाने लगा। हारकर बचे-खुचे लोगों ने भी हाथ खोल दिए। कुछ सिक्के बढ़ाए और आगे चल दिए।
गली-मोहल्लों से लेकर चौराहों तक में ये तमाशा कइ बार देखा होगा। लेकिन राज्यों की नई-नवेली सरकारें भी कुछ इसी अंदाज में पेश आ रही हैं। उनका डमरू है कि बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। लगभग एक महीना होने को आया है। सारी ताकत उखाड़-पछाड़ में ही लगा रखी है। तबादलों का मौसम है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। कुछ अफसरों के तो दो-दो, तीन-तीन तबादले किए जा चुके हैं। मानो वे लडक़ी की जगह अफसरों को रस्सी पर चढ़ाकर उनका संतुलन जांच रहे हो।
कुछ घोषणाएं हुई हैं, कुछ बैठकें की हैं, कुछ मंत्रियों ने निरीक्षण-परीक्षण भी किए हैं, उनमें कार्रवाई भी ऐसी ही फौरी हुई हैं, जैसे शाहरुख और करीना की चुहलबाजी चल रही हो। न जांच न पड़ताल, सीधे फरमान। अध्यक्ष का चुनाव हो या उपाध्यक्ष का चयन। हर जगह खालिस ड्रामा हो रहा है। बीच-बीच में कुछ संवाद हकीम लुकमान के खानदानी नुस्खों की तरह छोड़ दिए जाते हैं, मानो सबकुछ बदल दिया जाएगा, सुधार दिया जाएगा।
हकीकत में मंत्री कार्यक्रम में तवज्जो नहीं मिलने की शिकायत करता है, कोई मंत्री न बन पाने के लिए मोर्चा खोल देता है। नतीजा यही निकलता है कि और विस्तार करेंगे और लोग जोड़ेंग, जुटाएंगे। जनता दम साधकर इंतजार कर रही है। कब ये तमाशा असली मकसद पर आएगा। वैसे तबादले सिर्फ सत्ता में नहीं विपक्ष में भी हुए हैं। वहां भी डमरू वैसे ही बज रहा है।
- यह लेख अमित मंडलोई की वॉल से साभार है।
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