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असम के प्रसिद्ध साहित्यकार और समाजविज्ञानी हीरेन गोहाँइ पर राजद्रोह का मुकदमा
विरोध की आवाज़ को दबाने के लिए भारतीय राज्य किस हद तक जा सकता है, इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है असम के अस्सी वर्षीय बुजुर्ग साहित्यकार हीरेन गोहाँइ पर राजद्रोह का मुक़दमा। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित असम के प्रख्यात कवि और आलोचक हीरेन गोहाँइ का क़सूर सिर्फ इतना है कि उन्होंने 7 जनवरी को गुवाहाटी में आयोजित एक जनसभा में केंद्र सरकार द्वारा पारित नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 का विरोध किया। उनके साथ-साथ कार्यकर्ता अखिल गोगोई और पत्रकार मंजीत महंता पर भी राजद्रोह का मुक़दमा दायर किया गया है। मानो इतना काफी न हो, इसलिए इन तीनों पर भारतीय दंड संहिता की धाराएँ भी लगाई गईं हैं। सवाल है कि क्या अब एक जन सभा में राज्य द्वारा प्रस्तावित एक विधेयक की आलोचना को राजद्रोह मान लिया जाएगा?
1939 में असम में जन्मे हीरेन गोहाँइ ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से शोध करते हुए जॉन मिल्टन की रचनाओं पर काम किया। बाद में उनका शोध-ग्रंथ ‘ट्रेडीशन एंड पैराडाइज़ लॉस्ट’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। साहित्यकार और आलोचक होने के साथ-साथ हीरेन गोहाँइ असम के उत्कृष्ट समाज-वैज्ञानिकों में से एक रहे हैं। ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ में तीन दशकों तक प्रकाशित हुए उनके लेख उनकी गहरी समझ की बानगी देते हैं। 1978 में उन्होंने इतिहासकार अमलेंदु गुहा की किताब ‘प्लांटर राज़ टू स्वराज’ की बेहतरीन समीक्षा ‘पॉलिटिक्स ऑफ ए प्लांटेशन इकॉनमी’ शीर्षक से लिखी थी। इसके बाद उन्होंने असम के इतिहास, राजनीति, समाज-संस्कृति से जुड़े तमाम मुद्दों पर लेख लिखे।
फ़ोटो- www.sentinelassam.com
उल्लेखनीय है कि हीरेन गोहाँइ ने सत्तर के दशक से असम में उल्फा जैसे उग्रवादी संगठनों के नेतृत्व में चल रहे जातीय आंदोलनों की सीमाओं को, उनकी हिंसक प्रवृत्तियों को उजागर किया। असम में रहते हुए उल्फा की नाराजगी और अपनी जान का खतरा उठाते हुए ‘लघु राष्ट्रवाद’ के इस प्रारूप में अंतर्निहित हिंसक और उग्र राष्ट्रीयता की धारणा का उन्होंने विरोध किया। बाद में भी उल्फा प्रायोजित हिंसा, सेना और पुलिस द्वारा पूर्वोत्तर के इलाकों में आम लोगों पर की जा रही हिंसा का उन्होंने प्रतिवाद किया।
उनका कहना था कि उल्फा जैसे उग्रवादी संगठन विभिन्न समुदायों के बीच विद्वेष और परस्पर अविश्वास बढ़ाने का काम करते हैं। यही कारण था कि उन्होंने उग्रवादी संगठनों की अराजकता और हिंसा के विरुद्ध लगातार आवाज़ उठाई और उनके राजनीतिक प्रोपगेंडा की कलई भी खोली।
इसके साथ ही उन्होंने केंद्र और राज्य की सरकारों से असम के लोगों की वाजिब माँगों, उनकी समस्याओं और उनकी आकांक्षाओं पर ध्यान देने का आह्वान किया। बोडो समस्या पर लिखते हुए उन्होंने बोडो भाषा व संस्कृति के संरक्षण के साथ, बोडो बहुल इलाकों को स्वायत्तता देने और राज्य कैबिनेट व प्रशासनिक अमलों में बोडो समुदाय के लोगों को प्रतिनिधित्व देने की भी मांग उन्होंने उठाई।
पूर्वोत्तर में प्रस्तावित कई बड़े बांधों के निर्माण से उपजने वाले प्राकृतिक संकट और असम में बाढ़ से होने वाली भयावह त्रासदी के बारे में और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर भी उन्होंने विस्तार से लिखा। ऐसे जन-बुद्धिजीवी पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया जाना असम और देश की जनता का अपमान है।
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