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आज मातृभाषा दिवस है। सुनता हुआ बड़ा हुआ कि एकर अर्थ को लगाई ! जे एकर अर्थ लगावै ! थोड़ का एकर अर्थ लगावा हो ! कौनो अरथ के नहीं! अरथै अरथ मां रहे बिकान ! एकौ अरथ न लाग !!! ये बघेली के गप्प के दौरान हुंकारी के साथ साथ चलने वाले कुछ प्रस्तावक कुछ अनुमोदक वाक्य हैं।
सोचता हूँ बोलने वाले ही न रहेंगे तो कैसे बचेंगे किसी भाषा के शब्दों के अर्थ ! कभी कभी लगता है जो शब्दों के अर्थ बिगाड़ते हैं उन्हें चित्त से उतार देना चाहिए। ऐसे लोग जिस राह सामने पड़ जाएं उस राह कभी न जाने का नेम निभाना चाहिए भले सर्वस्व बिगड़ता हो।
- आजकल देखता हूँ गुरु और शिष्य शब्द के अर्थ वो नहीं रहे। जो गुरु है उसे गुरुघंटाल समझा जाता है। जो शिष्य है वह भी दूसरे को चेला समझता है। किसी को क्या पड़ी कि चेला कबीरी परंपरा से चला आ रहा। तमाशा देखिये इनके अर्थ बिगाड़ने वाले बिना सींग पूंछ के बेहया कूदते फिरते हैं।
क्या आज भैया शब्द का अर्थ वही है जो हम सुनते आये हैं या जो काशीनाथ सिंह बोलते-लिखते हैं ! क्या नामवर सिंह को बहुत जानने के बावजूद हम गुरु का वह अर्थ लगा सकते हैं जो उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी को हमेशा कहा ! विश्वनाथ त्रिपाठी जी के विद्यार्थी उन्हें गुरुजी कहते हैं। कितने लोग गुरुजी शब्द का अर्थ लगा सकेंगे ?
मुझे अब गहराई से लगने लगा है कि कोई भी भाषा हो उसकी अच्छाई बुराई उसके बोलने वालों की अच्छाई बुराई है। कोई भाषा महान या कमतर नहीं है। अगर कोई हिंदी बोलकर जातिवादी और साम्प्रदायिक है तो काहे का हिंदी ! भाषा किसी को संत या शैतान नहीं बनाती। इंसान भाषा को करुणा या हिंसा बनाते हैं।
कोशिश होनी चाहिए कि वे सब बोलने वाले बचें-बढ़ें जो इंसानी भाषा बोलते हैं। जिनके बोलने का अर्थ उनके जीने में वही दिखता है। हम अर्थ बचाएं। भाषा का क्या है ! माँ किसी की भी हो ! नरेश सक्सेना एक कविता में शिशु के बारे में क्या खूब कहते हैं- 'वह अर्थ समझता है।'
पूरी कविता यह रही -
शिशु
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
समझता है सबकी मुस्कान
सभी के अल्ले ले ले ले
तुम्हारे वेद पुराण कुरान
अभी वह व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ समझता है
समझने में उसको, तुम हो
कितने असमर्थ, समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा।
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