- Get link
- Other Apps
- Get link
- Other Apps
![]() |
लेखक - शशि भूषण |
मुझे बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, जात-पांत, धरम-करम, राजनीतिकों, मैत्रीनुमा बैर, भूत-प्रेत, रोग-दोख आदि किसी से डर नहीं लगता था जब मैं पढ़ता था, तंगी में रहता था और चौबीस घंटे में चालीस-चालीस किलोमीटर साइकिल चलाता था।
इधर कुछ साल से क्या महसूस करता हूँ कि सब कुछ ठीक ठाक होने के बावजूद डर लगने लगा है, जबकि वजन ठीक ठाक है, पहनने-ओढ़ने, रहने-सहने में भी कोई किल्लत नहीं। पाकिस्तान को भी मुंहतोड़ जवाब दिया ही जाता रहता है। नये डर भी अजीब अजीब हैं- जातिवादियों के डर, धार्मिकों के डर, राष्ट्रवादियों के डर, प्रचारकों के डर, उन्मादियों के डर, पत्रकारों के डर, देशभक्तों के डर, बीमारियों के डर। समझना मुश्किल है- हुआ क्या है! धुंआ लेता हूँ न नफ़रत, बेईमानी !
![]() |
शशि भूषण अपनी साइकिल के साथ |
कारण सोचने बैठा तो ख़ुद पर ही अचरज हुआ। मेरी साइकिल कहाँ है ! हमेशा मेरे साथ रही। फिर बीते कुछ सालों में मुझे क्या हुआ ! मैंने छोड़ क्यों दी साइकिल ! नतीजे पर पहुंचा- बिना साइकिल लाये अब पुराना बल नहीं मिलने वाला ! अगर ज़रूरतें और अपेक्षाएं तुरन्त नहीं घटायीं तो पुरानी निडरता, खोया आत्मबल वापस नहीं मिलेंगे। इसीलिए दिन भर का थका होने के बावजूद कल शाम को ही दिवि के नाना के साथ जाकर साइकिल ले आया। नयी। चमचमाती हुई। एटलस गोल्ड लाईन सुपर ! बड़ा आनंद हुआ।
अब ठीक लग रहा है। समझ पा रहा हूँ कि गांधी जी उपवास क्यों रखते थे ! अरे, नमक रोटी ही तो छीन रखी थी अंग्रेजों ने भारतीयों की। भगत सिंह क्यों खयालों की बिजली बनाते थे ! अरे, मुश्त ए खाक ही तो बना रखी थी अंग्रेजों ने भारतीयों की ज़िंदगी। अम्बेडकर क्यों रात रात भर जागते थे ! अरे, सबसे परिश्रमियों को नीच बनाकर सुला ही तो रखा था भारतीयों ने।
कितना भला लगता है सदैव कम में भी गुज़ारा कर लेने का ख़याल ! तभी तो पसंद है सिंघम का डायलॉग - मेरी ज़रूरतें कम हैं इसीलिए मेरे सीने में दम है। शुक्रिया साइकिल !!
Comments
Post a Comment