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हम जिस समय में हैं, अख़बार में प्रभावशाली नेताओं और बड़े उद्योगपतियों की क़ानून से बच कर निकल जाने की ख़बरें आम हो गई हैं। इस दौर में ‘The untouchables’ जैसी फ़िल्मे व्यवस्था का एक अलग नरेशन करती है। ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसी फ़िल्मे नहीं बनी है। आपको ‘शूल’ फ़िल्म याद होगी। एक ईमानदार आफ़िसर किस तरह करप्ट सिस्टम से लड़ते हुए अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। यदि आप ग़ौर से ‘सिंघम’ सिरीज़ को भी देखें तो वह भी इसी कड़ी की एक फ़िल्म है, फ़र्क़ बस इतना है कि ‘सिंघम' सिरीज़ में सिस्टम क्राइम से लड़ते हुए सिस्टम से परे कुछ -कुछ ग़ैर क़ानूनी तरीक़े भी अख़्तियार करता है। लेकिन ‘The untouchables’ इस तरह की फ़िल्मों में नज़ीर देने लायक़ वाक़या पेश करती है।
कहानी तीस के उस दशक की है जब शिकागो में ‘शराबबंदी’ लागू की जाती है। क़ानूनन यह बंदी लागू होने के बावजूद भी गुजरात और बिहार की तरह वहाँ भी अवैध शराब का कारोबार तेज़ हो जाता है। एक शराब माफ़िया इस ग़ैर क़ानूनी व्यापार के ज़रिए शिकागो के सिस्टम (पुलिस/जज/ आफ़िसर) में अपनी धौंस बना लेता है। लगने लगता है इस माफ़िया को और उसके धंधे को नुक़सान पहुँचाना नामुमकिन है। इसी समय इस अवैध कारोबार को बंद करने और शराब बंदी को पूरी तरह लागू करने के लिए एक ईमानदार आफ़िसर आता है। एक ऐसा आफ़िसर,जो अपनी बीबी से बेहद प्यार करता है,अपने और दूसरे बच्चों का ख़याल रखता है,जो दोस्ती निभाना जानता है और जिसे सिस्टम के भीतर रह कर क्राइम को नेस्तनाबूत करना बेहतरीन काम लगता है।
अपने इस काम के लिए वह चार अपनी -अपनी जगहों पर काम कर रहे ईमानदार,अजीब बर्ताव करने वाले , बुद्धिमान और सनकी टाइप लोगों की एक टीम बनाता है। शुरुआत में इस टीम को सफलता नहीं मिलती,क्योंकि माफ़िया आलरेडी सिस्टम में अपनी गहरी जड़े जमा चुका होता है। बाद में यह कहानी जब अंजाम तक पहुँचने को होती है,चार लोगों की इस बेहतरीन टीम के दो ईमानदार साथी मार दिए जाते हैं। नायक ड्यूटी के प्रति अपनी निष्ठा निभाते हुए अंततः माफ़िया को सलाखों के पीछे पहुँचाता है। इस तरह इस साधारण सी दिखने वाली कहानी का सुखद अंत होता है।
Brian De Palma की 1987 में आई इस फ़िल्म ने बहुत तारीफ़े बँटोरी है। जब मैं यह बात लिख रहा हूँ मुझे संजीव भट्ट की पत्नी ‘श्वेता संजीव भट्ट’ का एक लेख याद आ रहा है। इसमें उन्होंने कहा था कि ‘ प्रभावशाली क्रिमिनलस’ से लड़ते हुए ईमानदार आफ़िसर को परदे पर देखना सभी को अच्छा लगता है। लेकिन यदि कोई सचमुच ऐसा करता है तो लोग उसे अकेला छोड़ देते हैं। आप क्या सोचते हैं? नहीं पता। पर मुझे यह सच लगता है। यह हमारा दोहरापन ही है कि हम प्यार और प्रभावशाली लोगों के खिलाड़ एक ईमानदार लड़ाई को सिर्फ़ परदे पर देखना चाहते हैं,वाक़ई में नहीं।
मैंने पहले पैरा में लिखा है ‘The untouchables’ क़ानून का मज़ाक़ उड़ाते विलेन और क़ानून के दायरे में रह कर काम करने वाले ईमानदार पुलिस आफ़िसर के बीच की लड़ाई को ले कर बनी फ़िल्मों में नज़ीर देने लायक़ वाक़या पेश करती है। यह बात मैंने इस फ़िल्म के आख़िरी समवाद से प्रेरित हो कर लिखी है। आप भी समझिए।
फ़िल्म के आख़िर सीन में पत्रकार नायक से पूछता है -
“They say they are going to repeal prohibition. what will you do then ?”
नायक जवाब देता है -
“I think I’ll have a drink."
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