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By - अजय सिंह
"2009 में उन्होंने मुझे प्रपोज़ किया था। 2011 में हमारी शादी हुई, मैं पुणे आ गयी। दो साल बाद नैना का जन्म हुआ। उन्हें लम्बे समय तक काम के सिलसिले में बाहर रहना पड़ता था। हमारी बच्ची छोटी थी, इसलिए हमारे परिवारों ने कहा कि मैं बेंगलुरु आ जाऊं। मैंने फिर भी वहीं रहना चुना, जहां अक्षय थे। मैं अपनी उस छोटी सी दुनिया से दूर नहीं जाना चाहती थी, जो हम दोनों ने मिल कर बनायी थी।
उनके साथ ज़िंदगी हंसती-खेलती थी। उनसे मिलने नैना को लेकर 2011 फ़ीट तक की ऊंचाई पर जाना, स्काईडाइविंग करना, हमने सबकुछ किया।
2016 में उन्हें नगरोटा भेजा गया। हमें अभी वहां घर नहीं मिला था, इसलिए हम ऑफ़िसर्स मेस में रह रहे थे।
29 नवम्बर की सुबह 5:30 बजे अचानक गोलियों की आवाज़ से हमारी आंख खुली। हमें लगा कि ट्रेनिंग चल रही है, तभी ग्रेनेड की आवाज़ भी आने लगी। 5:45 पर अक्षय के एक जूनियर ने आकर बताया कि आतंकियों ने तोपखाने की रेजिमेंट को बंधक बना लिया है। उनके मुझसे आखरी शब्द थे "तुम्हें इसके बारे में लिखना चाहिए।"
सभी बच्चों और महिलाओं को एक कमरे में रखा गया था। संतरियों को कमरे के बाहर तैनात किया गया था। हमें लगातार फ़ायरिंग की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। मैंने अपनी सास और ननद से इस बीच बात की। 8:09 पर उन्होंने ग्रुप चैट में मेसेज किया कि वो लड़ाई में हैं।
8:30 बजे सबको सुरक्षित जगह ले जाया गया। अभी भी हम सब पजामों और चप्पलों में ही थे। दिन चढ़ता रहा, लेकिन कोई ख़बर नहीं आ रही थी। मेरा दिल बैठा जा रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने 11:30 बजे उन्हें फ़ोन किया। किसी और ने फ़ोन उठा कर कहा कि मेजर अक्षय को दूसरी लोकेशन पर भेजा गया है।
लगभग शाम 6:15 बजे कुछ अफ़सर मुझसे मिलने आये और कहा, "मैम हमने अक्षय को खो दिया है! सुबह 8:30 बजे वो शहीद हो गए।" मेरी दुनिया वहीं थम गयी। जाने क्या-क्या ख़याल मेरे मन में आते रहे। कभी लगता कि काश मैंने उन्हें कोई मेसेज कर दिया होता। काश, जाने से पहले एक बार उन्हें गले लगा लिया होता! काश एक आखिरी बार उससे कहा होता कि मैं तुमसे प्यार करती हूं!
चीज़ें वैसी नहीं होतीं, जैसा हमने सोचा होता है। मैं बच्चों की तरह बिलखती रही, जैसे मेरी आत्मा के किसी ने टुकड़े कर दिए हों। दो और सिपाही भी उस दिन शहीद हो गए थे। मुझे उनकी वर्दी और कपड़े मिले। एक ट्रक में वो सब था, जो इन सालों में हमने जोड़ा था। लाख नाकाम कोशिशें कीं अपने आंसुओं को रोकने की।
आज तक उनकी वर्दी मैंने धोयी नहीं है। जब उनकी बहुत याद आती है, तो उनकी जैकेट पहन लेती हूं। उसमें उन्हें महसूस कर पाती हूं।
शुरू में नैना को समझाना मुश्किल था कि उसके पापा को क्या हो गया। लेकिन फिर उससे कह दिया कि अब उसके पापा आसमान में एक तारा बन गए हैं। आज हमारी जमायी चीज़ों से ही मैंने एक दुनिया बना ली है, जहां वो जीते हैं, मेरी यादों में, हमारी तस्वीरों में। आंखों में आंसू हों, फिर भी मुस्कुराती हूं। जानती हूं कि वो होते तो मुझे मुस्कुराते हुए ही देखना चाहते।
कहते हैं न, अगर आपने अपनी आत्मा को चीर देने का दर्द नहीं सहा, तो क्या प्यार किया! दर्द तो बहुत होता है पर हां, मैं उससे हमेशा इसी तरह प्यार करूंगी।"
शहीदों के परिवारों को वो सब सहना पड़ता है, जिसके बारे में सोच कर भी शायद आप कांप उठेंगे। उनके अपने क़ुर्बान हो जाते हैं, हमारी रक्षा करते-करते। हम सलाम करते हैं, उन लोगों को, जो ये सब सहते हैं, ताकि हम सुरक्षित रह सकें।
"2009 में उन्होंने मुझे प्रपोज़ किया था। 2011 में हमारी शादी हुई, मैं पुणे आ गयी। दो साल बाद नैना का जन्म हुआ। उन्हें लम्बे समय तक काम के सिलसिले में बाहर रहना पड़ता था। हमारी बच्ची छोटी थी, इसलिए हमारे परिवारों ने कहा कि मैं बेंगलुरु आ जाऊं। मैंने फिर भी वहीं रहना चुना, जहां अक्षय थे। मैं अपनी उस छोटी सी दुनिया से दूर नहीं जाना चाहती थी, जो हम दोनों ने मिल कर बनायी थी।
उनके साथ ज़िंदगी हंसती-खेलती थी। उनसे मिलने नैना को लेकर 2011 फ़ीट तक की ऊंचाई पर जाना, स्काईडाइविंग करना, हमने सबकुछ किया।
2016 में उन्हें नगरोटा भेजा गया। हमें अभी वहां घर नहीं मिला था, इसलिए हम ऑफ़िसर्स मेस में रह रहे थे।
29 नवम्बर की सुबह 5:30 बजे अचानक गोलियों की आवाज़ से हमारी आंख खुली। हमें लगा कि ट्रेनिंग चल रही है, तभी ग्रेनेड की आवाज़ भी आने लगी। 5:45 पर अक्षय के एक जूनियर ने आकर बताया कि आतंकियों ने तोपखाने की रेजिमेंट को बंधक बना लिया है। उनके मुझसे आखरी शब्द थे "तुम्हें इसके बारे में लिखना चाहिए।"
सभी बच्चों और महिलाओं को एक कमरे में रखा गया था। संतरियों को कमरे के बाहर तैनात किया गया था। हमें लगातार फ़ायरिंग की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। मैंने अपनी सास और ननद से इस बीच बात की। 8:09 पर उन्होंने ग्रुप चैट में मेसेज किया कि वो लड़ाई में हैं।
8:30 बजे सबको सुरक्षित जगह ले जाया गया। अभी भी हम सब पजामों और चप्पलों में ही थे। दिन चढ़ता रहा, लेकिन कोई ख़बर नहीं आ रही थी। मेरा दिल बैठा जा रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने 11:30 बजे उन्हें फ़ोन किया। किसी और ने फ़ोन उठा कर कहा कि मेजर अक्षय को दूसरी लोकेशन पर भेजा गया है।
चीज़ें वैसी नहीं होतीं, जैसा हमने सोचा होता है। मैं बच्चों की तरह बिलखती रही, जैसे मेरी आत्मा के किसी ने टुकड़े कर दिए हों। दो और सिपाही भी उस दिन शहीद हो गए थे। मुझे उनकी वर्दी और कपड़े मिले। एक ट्रक में वो सब था, जो इन सालों में हमने जोड़ा था। लाख नाकाम कोशिशें कीं अपने आंसुओं को रोकने की।
आज तक उनकी वर्दी मैंने धोयी नहीं है। जब उनकी बहुत याद आती है, तो उनकी जैकेट पहन लेती हूं। उसमें उन्हें महसूस कर पाती हूं।
शुरू में नैना को समझाना मुश्किल था कि उसके पापा को क्या हो गया। लेकिन फिर उससे कह दिया कि अब उसके पापा आसमान में एक तारा बन गए हैं। आज हमारी जमायी चीज़ों से ही मैंने एक दुनिया बना ली है, जहां वो जीते हैं, मेरी यादों में, हमारी तस्वीरों में। आंखों में आंसू हों, फिर भी मुस्कुराती हूं। जानती हूं कि वो होते तो मुझे मुस्कुराते हुए ही देखना चाहते।
कहते हैं न, अगर आपने अपनी आत्मा को चीर देने का दर्द नहीं सहा, तो क्या प्यार किया! दर्द तो बहुत होता है पर हां, मैं उससे हमेशा इसी तरह प्यार करूंगी।"
शहीदों के परिवारों को वो सब सहना पड़ता है, जिसके बारे में सोच कर भी शायद आप कांप उठेंगे। उनके अपने क़ुर्बान हो जाते हैं, हमारी रक्षा करते-करते। हम सलाम करते हैं, उन लोगों को, जो ये सब सहते हैं, ताकि हम सुरक्षित रह सकें।
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