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By - अनुराग भारद्वाज
कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 a के ख़ात्मे पर हर कोई ख़ुश है, अलावा कश्मीरियों के. भाई ख़ुश होना भी चाहिए, आख़िर एक सीमा, एक निशान, और एक संविधान की अवधारणा पर ही तो राष्ट्र की परिकल्पना की जाती है. आम इन्सान को विलय की शर्तें से क्या सरोकार, और होना भी नहीं चाहिए. लिहाज़ा, मैं ख़ुश हूँ, और कई मुझ जैसे. पर इस ख़ुशी का एक कारण और भी है.
अब कश्मीर के पास विशेषाधिकार का दर्ज़ा नहीं है. जो अहसासे कमतरी (inferiority complex) हम ग़ैर कश्मीरियों को था, अब ख़त्म हो जाना चाहिए और अब मुझे फ़ौरन से पेश्तर कश्मीर बस जाना चाहिए. पर मैं ख़ुद से से पूछता हूँ कि क्या मैंने नहीं चाहा था कि मेरे राज्य को विशेषाधिकार मिलें? मेरी ख्वाइश थी कि सिर्फ़ मैं ही रहूँ और दूसरी जगह से आये नहीं. क्या मैंने दूसरे राज्यों से आये लोगों पर फ़ब्तियाँ नहीं कसी थीं? उनके वहां बसने पर नाक-मुंह नहीं सिकोड़े थे?
क्या मुंबई में बिहारियों और पुरवइयों को नहीं मारा पीटा गया? क्या उन्हें महाराष्ट्र से नहीं खदेड़ा गया? क्या केरल में ग़ैर केरलवासी चैन से रह पाता है? क्या दिल्ली के पुराने वाशिंदे उत्तर प्रदेश और बिहार से आये लोगों के साथ तालमेल बिठाते हैं?
और तो और, राजस्थान का आदमी बाहर से आये लोगों के सर पर क़ानून व्यवस्था बिगड़ने का इल्ज़ाम लगता है. वहीँ, असम से मारवाड़ियों को बड़ी बेरहमी से बेदख़ल किया गया था. यूपी के भाई लोग भूल गए कि कुछ दिन पहले एक कश्मीरी को सरेआम सिर्फ़ इसलिए पीटा गया था कि वो ग़रीब कालीन बेचने का कारोबार कर रहा था. तमिल नाडू का आदमी हिंदी जानते हुए भी किसी हिंदी वासी से अपने प्रदेश में हिन्दी में बात नहीं करता.
राज्यों की तो छोड़ो, हमें दूसरे ज़िले के लोग नहीं सुहाते. क्षेत्रवाद भी हम सबके सर पर तारी रहता है. उत्तर बनाम दक्षिण की लड़ाई तो हम सबको याद ही है.
कांग्रेस छाती पीट रही है, जबकि नेहरु ने सबसे पहले अबुल कलाम आज़ाद को हरियाणा के मेवात के इलाक़े से सिर्फ़ इसलिए चुनाव लड़वाया था क्यूंकि वहां मुसलमान सबसे ज़्यादा थे. संघी और भाजपाई जो आज बल्लियों उछल रहे हैं, वो मुसलामानों को देश निकाला कर देने पर आमदा हैं.
दरअसल, हम सब यही चाहते हैं. बस फ़र्क इतना है कि कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के साथ विलय में ये शर्त आईन में घुसा दी गईं थीं, बाक़ी के प्रान्तों के साथ ऐसा नहीं था.
हम 'अपने' राज्य पर, 'अपने' ज़िले पर, और 'अपनी' तहसील पर एकाधिकार चाहते हैं, क्यूंकि हम उसे बपोती समझते हैं. और इसी विशेषाधिकार की हमें तम्मना होती है. और बड़े स्तर पर देखें तो दलितों और अन्य जातियों को दिया गया आरक्षण विषेश अधिकार नहीं तो क्या है? आंध्र प्रदेश और बिहार के मुख्य मंत्री जैसे लोग हर बार केन्द्र से extra package ले जाते हैं, उसे क्या कहेंगे?
हम अपने लिए तो विशेषाधिकार चाहते हैं, पर किसी दूसरे से छीने जाने पर ज़्यादा खुश होते हैं. और आज ये जो जश्न का माहौल हम देख रहे हैं, ये इसी बात की तसदीक कर रहा है. दिल्ली बैठे कश्मीरी पंडित इस फ़ैसले से इसलिए ख़ुश नहीं है कि बाकी हिंदुस्तान के लोग उधर बस सकते हैं. उनकी रज़ामंदी तब तक ही है , जब तक वहां हिंदू-मुस्लिम ratio बराबर नहीं हो जाता. बाद में वो भी आंखें दिखाए, तो हैरत की बात नहीं होगी. कश्मीरियों का दूसरा तबका रो रहा है,अगर मुझसे भी ऐसा कोई दर्ज़ा छीन लिया तो मैं भी छाती पीट-पीट कर टेसू बहाऊंगा.
हक़ीक़त ये है कि 370 और 35 a हमारे दिल में चस्पा है और जब तक इसका मसला नहीं सुलझेगा, ये फ़साद क़ायम रहेगा. ये कानून कश्मीरियों के लिए तो हट गया है, पर हमारे दिलों से कब हटेगा, नहीं पता.और जब तक ऐसा नहीं होता है, एक राष्ट्र के बनने का ख्वाब अधूरा ही है. पर आज तो जश्न का दिन है!
370 और 35 a हमारे दिल में चस्पां हैं
कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 a के ख़ात्मे पर हर कोई ख़ुश है, अलावा कश्मीरियों के. भाई ख़ुश होना भी चाहिए, आख़िर एक सीमा, एक निशान, और एक संविधान की अवधारणा पर ही तो राष्ट्र की परिकल्पना की जाती है. आम इन्सान को विलय की शर्तें से क्या सरोकार, और होना भी नहीं चाहिए. लिहाज़ा, मैं ख़ुश हूँ, और कई मुझ जैसे. पर इस ख़ुशी का एक कारण और भी है.
अब कश्मीर के पास विशेषाधिकार का दर्ज़ा नहीं है. जो अहसासे कमतरी (inferiority complex) हम ग़ैर कश्मीरियों को था, अब ख़त्म हो जाना चाहिए और अब मुझे फ़ौरन से पेश्तर कश्मीर बस जाना चाहिए. पर मैं ख़ुद से से पूछता हूँ कि क्या मैंने नहीं चाहा था कि मेरे राज्य को विशेषाधिकार मिलें? मेरी ख्वाइश थी कि सिर्फ़ मैं ही रहूँ और दूसरी जगह से आये नहीं. क्या मैंने दूसरे राज्यों से आये लोगों पर फ़ब्तियाँ नहीं कसी थीं? उनके वहां बसने पर नाक-मुंह नहीं सिकोड़े थे?
क्या मुंबई में बिहारियों और पुरवइयों को नहीं मारा पीटा गया? क्या उन्हें महाराष्ट्र से नहीं खदेड़ा गया? क्या केरल में ग़ैर केरलवासी चैन से रह पाता है? क्या दिल्ली के पुराने वाशिंदे उत्तर प्रदेश और बिहार से आये लोगों के साथ तालमेल बिठाते हैं?
और तो और, राजस्थान का आदमी बाहर से आये लोगों के सर पर क़ानून व्यवस्था बिगड़ने का इल्ज़ाम लगता है. वहीँ, असम से मारवाड़ियों को बड़ी बेरहमी से बेदख़ल किया गया था. यूपी के भाई लोग भूल गए कि कुछ दिन पहले एक कश्मीरी को सरेआम सिर्फ़ इसलिए पीटा गया था कि वो ग़रीब कालीन बेचने का कारोबार कर रहा था. तमिल नाडू का आदमी हिंदी जानते हुए भी किसी हिंदी वासी से अपने प्रदेश में हिन्दी में बात नहीं करता.
राज्यों की तो छोड़ो, हमें दूसरे ज़िले के लोग नहीं सुहाते. क्षेत्रवाद भी हम सबके सर पर तारी रहता है. उत्तर बनाम दक्षिण की लड़ाई तो हम सबको याद ही है.
कांग्रेस छाती पीट रही है, जबकि नेहरु ने सबसे पहले अबुल कलाम आज़ाद को हरियाणा के मेवात के इलाक़े से सिर्फ़ इसलिए चुनाव लड़वाया था क्यूंकि वहां मुसलमान सबसे ज़्यादा थे. संघी और भाजपाई जो आज बल्लियों उछल रहे हैं, वो मुसलामानों को देश निकाला कर देने पर आमदा हैं.
दरअसल, हम सब यही चाहते हैं. बस फ़र्क इतना है कि कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के साथ विलय में ये शर्त आईन में घुसा दी गईं थीं, बाक़ी के प्रान्तों के साथ ऐसा नहीं था.
हम 'अपने' राज्य पर, 'अपने' ज़िले पर, और 'अपनी' तहसील पर एकाधिकार चाहते हैं, क्यूंकि हम उसे बपोती समझते हैं. और इसी विशेषाधिकार की हमें तम्मना होती है. और बड़े स्तर पर देखें तो दलितों और अन्य जातियों को दिया गया आरक्षण विषेश अधिकार नहीं तो क्या है? आंध्र प्रदेश और बिहार के मुख्य मंत्री जैसे लोग हर बार केन्द्र से extra package ले जाते हैं, उसे क्या कहेंगे?
हम अपने लिए तो विशेषाधिकार चाहते हैं, पर किसी दूसरे से छीने जाने पर ज़्यादा खुश होते हैं. और आज ये जो जश्न का माहौल हम देख रहे हैं, ये इसी बात की तसदीक कर रहा है. दिल्ली बैठे कश्मीरी पंडित इस फ़ैसले से इसलिए ख़ुश नहीं है कि बाकी हिंदुस्तान के लोग उधर बस सकते हैं. उनकी रज़ामंदी तब तक ही है , जब तक वहां हिंदू-मुस्लिम ratio बराबर नहीं हो जाता. बाद में वो भी आंखें दिखाए, तो हैरत की बात नहीं होगी. कश्मीरियों का दूसरा तबका रो रहा है,अगर मुझसे भी ऐसा कोई दर्ज़ा छीन लिया तो मैं भी छाती पीट-पीट कर टेसू बहाऊंगा.
हक़ीक़त ये है कि 370 और 35 a हमारे दिल में चस्पा है और जब तक इसका मसला नहीं सुलझेगा, ये फ़साद क़ायम रहेगा. ये कानून कश्मीरियों के लिए तो हट गया है, पर हमारे दिलों से कब हटेगा, नहीं पता.और जब तक ऐसा नहीं होता है, एक राष्ट्र के बनने का ख्वाब अधूरा ही है. पर आज तो जश्न का दिन है!
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